
-महेन्द्र नेह-
(कवि, गीतकार और समालोचक)
हाथ नहीं फैलाया हमने कभी न माँगी भिक्षा।
झूठ-साँच को समझ सकें, बस इतनी पाई शिक्षा ।।
कभी न मानी हार हमन ने कभी न बदला पाला।
कहा श्वेत को श्वेत हमेशा और काले को काला ।।
हाथों में गठ्ठल, पाँवों में अनगिन पड़ीं बिवाई।
ये ही रूप-स्वरूप हमारा, दौलत यही कमाई ।।
सपनों में कबीर आते हैं कहते नेह सुनो तुम ।
दुष्टों की अंधी दुनिया में कभी न हो जाना गुम ।।
चाहे जितने कष्ट उठाना सच को सच ही कहना ।
सच ही अपना माणक-मोती सच ही अपना गहना ।।
कभी अकेले बदल नहीं पाएगा अपना भाग।
मिल- -जुल कर कुछ जुगत करें घर घर में लागी आग।।
पहले रोटी का जुगाड़ आपस में सुख-दुख बाँटें ।
फिर जो जोंकें चिपटीं तन में गिन-गिन उनको काटें ।।
(महेन्द्र नेह की ‘हमें साँच ने मारा’ पद-संग्रह पुस्तक से साभार)