जिसके लिए हमेशा ॲंधेरों से जंग की। देने लगी फ़रेब वही रोशनी मुझे।।

shakoor anwar
शकूर अनवर

ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

नागिन शबे फ़िराक़* थी डसती रही मुझे।
फिर भी वो रात हिज्र की अच्छी लगी मुझे।।
*
जिसके लिए हमेशा ॲंधेरों से जंग की।
देने लगी फ़रेब वही रोशनी मुझे।।
*
किस दौरे नामुराद* में पैदा हुआ हूॅं मैं।
किस दर्ज़ा बद हवास* मिली ज़िंदगी मुझे।।
*
यूॅं तो नज़र के सामने जम्मे ग़फ़ीर* था।
फिर भी मिला न दूर तलक आदमी मुझे।।
*
सर से गुज़र चुकी हैं ज़माने की हाजतें*।
ग़रक़ाब कर गई मेरी दरिया दिली मुझे।।
*
मुझको अमीरे शहर का दर्जा दिया गया।
जबसे तुम्हारे हुस्न की दौलत मिली मुझे।।
*
“अनवर” जुनूने शौक़ में जंगल को घर किया।
चलिए कहीं तो लाई है दीवानगी मुझे।।
*

शबे फ़िराक़* जुदाई की रात
दौरे ना मुराद* दुर्भाग्यपूर्ण समय
बद हवास* अस्त व्यस्त
जम्म ए ग़फ़ीर* अथाह भीड़
हाजतें*आवश्यकताऍं
ग़रक़ाब कर गई* डूबो गई
दरिया दिली* खूब खर्च करने की आदत
अमीर ए शह्र* नगर सेठ

शकूर अनवर

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