ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
अपने लिये तू महरो-वफ़ा* फिर किसी में ला।
रंगीनी ए हयात* को इस ज़िन्दगी में ला।।
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आ पेश इस तरह से तू ग़ैरों के सामने।
अपने लिये ख़ुलूस* हर इक अजनबी में ला।।
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जोशे-जुनू* को छोड़ के दुनिया के साथ चल।
हाेशो-ख़िरद* की बात कभी बेख़ुदी में ला।।
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ये आफ़ताब चाॉंद सितारे हक़ीर* हैं।
इनसे बुलन्द मर्तबा* अपनी ख़ुदी* में ला।।
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फ़िक्रो-अमल* पे तीरगी* छाई हुई है क्यूॅं।
जो कुछ भी कर रहा है उसे रोशनी में ला।।
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“अनवर” ज़माने भर की निगाहें तुझी पे हैं।
तू कोई इन्क़लाब तेरी शायरी में ला।।
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महरो-वफ़ा*मेहरबानी और प्रेम
रंगीनी ए हयात*जीवन की सुंदरता
ख़ुलूस* प्रेम
जोशे-जुनू*दीवानेपन का जोश
होशो-ख़िरद*समझदारी अक्लमंदी
हक़ीर*तुच्छ
मर्तबा*रुतबा
ख़ुदी*अपने अंदर का स्वाभिमान
फ़िक्रो-अमल*चिंतन और कर्तव्य
तीरगी*अंधेरा
इनक़्लाब*क्रांति
शकूर अनवर
9460851271