– विवेक कुमार मिश्र-

पूस की हाड़ कंपाती ठंड पड़ रही है
दूर – दूर तक कुछ भी सूझ नहीं रहा
कोहरा ऐसे पड़ रहा कि टप – टप बारिश की बूंदें
गिर रही हों…. !!!
हर बूंद छन्न से हाड़ कंपा जाती
ठंड के मारे कुछ भी नहीं सूझता
ऐसे में कहीं भी कुछ नहीं सूझता
फिर भी चलना है तो चलना ही है
पूस की रात इतना कंपकंपा देती कि
मुंह से बोल भी नहीं निकलते
लगता है कि सब बर्फ की तरह जम रहा हो
और इस जमे हुए बर्फीले मौसम में आदमी
यूं ही अपनी जगह पर कांपता हुआ पड़ा रहता
हिल डुल भी नहीं पाता
और ठंड ऐसे समा जाती कि
बाहर भीतर सब ठंड का ही राज छा जाता
हाड़ कंपाती पूस की रात कहती है कि
ठंड से बचना है तो आग जला लें
लक्कड़ में आग लगा… हाथ की सिकाई कर
आग की इस गरमाई से
ठंड से थोड़ा राहत मिल जायेगा
हाथ पैर सून्न होने से बच जायेंगे
पर जैसे ही आंच खत्म होगी
फिर ठंड का राज शुरू हो जायेगा
ठंड ऐसे कि बर्फ पर पैर रखे हों
और सून्न हुए जा रहे हों
यहां ठंड ऐसे उतरती है कि
हड्डियों तक पहुंच जायेगी
कहां तक बचोगे ठंड से
ठंड छोड़ती नहीं
अपने चपेटे में ले ही लेती है
दिन धूप से गुनगुना रहा हो
तो भले गुनगुनाता रहे
पर रात आने से पहले ही
ठंड का असर शुरू हो जाता
बर्फीली हवाएं केवल ऊपरी सतह पर नहीं रुकती
सीधे हड्डियों को बेधते हुए हाड़ को कंपा देती हैं
पूस की रात है आदमी क्या
जीव जंतु सब अपनी जगह पर
कूं कूं करते रहते हैं
इतनी इतनी ठंड कि हाड़ ही गलने लगता
आदमी अपने भीतर की गर्मी से
इस ठंड से जूझता है
जैसे तैसे जीवन का चक्र इस बर्फीले मौसम में
ठंडी हवाओं के बीच
जीवन का गीत गाते हुए चल पड़ता है
मशाल और आग की गर्मी लिए हुए
आदमी बस चलता रहता है
पूस की रात आम रात नहीं है
इस रात में ठंड से हाड़ ऐसे कांपने लगता है कि
और कोई काम न हो और हाड़ को
कांपने का काम सौंप दिया गया हो कि
बस तुम्हें कांपना ही कांपना है।
– विवेक कुमार मिश्र
(सह आचार्य हिंदी राजकीय कला महाविद्यालय कोटा)
F-9, समृद्धि नगर स्पेशल , बारां रोड , कोटा -324002(राज.)