मैं साफ़गो* ज़ुबान का सादा हूॅं दोस्तो। बुनते हो मेरे वास्ते लफ़्ज़ों का जाल क्यों।।

ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

फिर हो गया ज़मीन पे जीना मुहाल* क्यों।
फिर आसमान ग़ैज़ो-ग़ज़ब* में है लाल क्यों।।
*
फ़सलें मसर्रतों* की सभी ख़ाक हो गईं।
खु़शियों का पड़़ गया है ज़मीं पर अकाल क्यों।।
*
मैं साफ़गो* ज़ुबान का सादा हूॅं दोस्तो।
बुनते हो मेरे वास्ते लफ़्ज़ों का जाल क्यों।।
*
जब शाम सर पे आयेगी ढल जायेगा शबाब*।
ऐ हुस्न ए आफ़ताब* अभी ये ख़याल क्यों।।
*
कैसा बड़ा था नाम मगर काम शर्म के।
इतना उरूजथा तो फिर ऐसा ज़वाल क्यों।।
*
तुम हिंदू, और मैं हूँ मुसलमान, ये हैं सिक्ख।
उलझे हुए हैं ज़ह्न में, ऐसे सवाल क्यों।।
*
ऊंचे सुरों में गाये हैं जब एकता के गीत।
बिगड़े हुए हैं शहर के फिर हाल चाल क्यों।।
*
जब चल पड़े हो इसमें तो पत्थर ही आयेंगे।
“अनवर” ये राहे-इश्क़ में इतना मलाल क्यों ।।
*
मुहाल*कठिन, मुश्किल,
ग़ैज़ो- ग़ज़ब* क्रोध, ग़ुस्सा, प्रकोप,
मसर्रतों* ख़ुशियों,
साफ़गो* सीधा सच्चा,
शबाब* यौवन,
हुस्ने आफ़ताब* सोन्दर्य का सूरज,
उरूज* उत्थान,
ज़वाल* पतन,
*
शकूर अनवर

Advertisement
Subscribe
Notify of
guest

2 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
D K Sharma
D K Sharma
2 years ago

बहुत बढ़िया लिखते हैं शकूर अनवर।

Vivek Mishra
Vivek Mishra
2 years ago

शकूर अनवर साहब की ग़ज़ल बार बार पढ़ें जाने और विचार करने के लिए कहती है।