
#पहाड़ की स्त्रियां
-अनीता मैठाणी-

पहाड़ की छाती पर
थाती बोती स्त्रियां,
युगों-युगों तक याद की जाएंगी।
घाव पर फूंक का
मरहम लगाती,
फिर-फिर दोहराई जाएंगी
पहाड़ की स्त्रियां।
भर नहीं देतीं
जब तक दिगंत,
अपने श्रम के रंगों से
स्वर्णिम से रक्ताभ, रक्ताभ से स्वर्णिम के बीच,
कई रंग आजमायेंगी
पसीने की धार से चेहरा चमकाएँगी
अपना लोहा मनवायेंगी
पहाड़ की स्त्रियां।
अरूणोदय से पहले
जग जाएंगी,
पीछे घर को मीठी नींद में सोता छोड़
आंचल में ममता
और बगल में
पाट्ठल-जूड़ा (रस्सी) ]
और उसी के बीच हरा नमक लगी रोटी दबाये,
बौंड (जंगल) निकल जाएंगी
पहाड़ की स्त्रियां।
चरवाहा बन
गोरु डंगर के लिए
खूब हरी घास
और चूल्हे के लिए आग;
पीठ पर उठा लायेंगी-
देखना-
एक दिन
पहाड़ की स्त्रियां-
खुद पहाड़ बन जाएंगी!
अनीता मैठाणी