
-मधु मधुमन-
अपनी मर्ज़ी पे जब से चलने लगे
यकबयक हम जहां को खलने लगे
वक़्ते-मुश्किल पे दोस्त भी यकदम
मौसमों की तरह बदलने लगे
दौर कैसा ये आ गया या रब
आइने आइनों को छलने लगे
छोड़ कर जंगलों को अब तो जी
आस्तीनों में साँप पलने लगे
लद गए पेड़ जब फलों से तो
उनपे पत्थर बहुत उछलने लगे
प्यार से छू लिया ज़रा सा बस
संग फिर ख़ुद-ब-ख़ुद पिघलने लगे
उसने मुस्का के बात क्या कर ली
दिल में लाखों चराग़ जलने लगे
शाम जब रफ़्ता-रफ़्ता ढलने लगी
हम भी हो कर निढाल ढलने लगे
रूह को चैन आ गया ‘मधुमन ‘
दर्द जब शे’र में निकलने लगे
-मधु मधुमन
(कवयित्री एवं शायरा)