
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
कोई मुझको बतलाए मेरी इक पहेली है।
पत्थरों की बस्ती में काॅंच की हवेली है।।
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क्यों मेरे मुक़द्दर में इस क़दर ॲंंधेरे हैं।
क्या मेरी ये क़िस्मत भी रात की सहेली है।।
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फूल उसके उपवन के ख़ुशबुओं से खाली हैं।
बेल उसके ऑंगन की नाम की चमेली है।।
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ज़िंदगी की राहों में खा़र* हैं बबूलों के।
पाॅंव में फफोले हैं ख़ूॅंचकाॅं* हथेली है।।
रात के ॲंधेरे में नोच कर न खा जाए।।
हर तरफ़ दरिंदे* हैं ज़िंदगी अकेली है।
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जिसके दर दरिचों पर वहशतों* का मस्कन* हो।
बे चिराग़ ऑंगन हो वो मेरी हवेली है।।
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इस बरस भी हम “अनवर” कब रहे ठिकाने से।
इस बरस भी बारिश को हमने सर पे झेली है।।
शब्दार्थ:-
ख़ार*कांटे
ख़ूॅंचका* ख़ून से सनी हुई
दरिंदे * जंगली जानवर
दर दरीचों*दरवाज़े, खिड़कियाँ
वहशतों* डर
मसकन* निवास
शकूर अनवर
बहुत सुन्दर!
आपका आभार
हर तरफ़ दरिंदें हैं जिंदगी अकेली है ,शकूर अनवर साहब ने इन चंद शब्दों में वर्तमान सामाजिक व्यवस्था पर गहरी चोट की है