
डॉ. रमेश चंद मीणा

प्रकृति सी माँ
धरती सा आंगन
जिसमे सृजित होता है
आदिमता का ताना- बाना
हमारी मौलिकता बुनता है
और रचता है सृष्टि सी चादर
जिसमे गांठे मँडती है
वनस्पति,भूदृश्य,पहाड़-पठार
आधार को सिंचित करती
नाना नदी-नाले; अविरल सरिता
प्रकृति से पोषित होकर
प्रकृति पुत्र है
माँ को पुनः-पुनः संवारता
ममतामयी आँचल को पहचानता
गोद का सिरहाना बना, सिर रख
निश्चिन्त हो
प्रकृति पुत्र करता,सृष्टि का विस्तार
निश्छल आदिम दर्शन से ही
निसृत हुई है सब संस्कृतियां जहां
फिर सब का,स्वयं में समाहन करता
यही सभ्यताओं का है ‘आदि’
और शायद अंत भी है यही ।।
(सहायक आचार्य-चित्रकला)
राजकीय कला महाविद्यालय, कोटा(राजस्थान)