
ग़ज़ल
-अहमद सिराज फारूकी-

ना क़ाफ़िला है सफ़र में ना शहसवार कोई
उड़ा रहा है हवा में मगर ग़ुबार कोई
वो हौसलों के सफ़ीने तो कब के ग़र्क़ हुए
चला है फिर भी समन्दर को करने पार कोई
बिछड़ने वाले कभी लौट कर नहीं आते
करे तो करता रहे उनका इंतज़ार कोई
लगेगा वक़्त तबीअत बहाल होने में
गया है कर के अभी मुझ को बेक़रार कोई
वही पहाड़ है, तेशा है और मैं हूं मगर
ना जू-ए-शीर ही निकली न आबशार कोई
सुलगती धूप लगाने लगी सदा मुझ को
सफ़र में जब भी मिला पेड़ सायादार कोई
इसी उमीद पे बैठे हैं इस चमन में ‘सिराज’
कभी तो आएगा लेकर यहां बहार कोई
1-शहसवार- घुड़सवार
2- ग़ुबार- धूल
3- सफ़ीने- कश्तियां
4- तेशा- बसूला
5-जू-ए-शीर- दूध की नदी
(शीरीं-फरहाद के किस्से से संबंधित)
6-आबशार- झरना
-अहमद सिराज फारूकी

















