भूली बिसरी यादें:  गांव में जर्जर हवेली का दर्द

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गांव की हवेली

-मनु वाशिष्ठ-

manu vashishth
मनु वशिष्ठ

वही दर है, वही दरवाजे
वही हवेली है, वही आंगन
घुटनों चलते, बीती यहां जवानी
बन गए एक किस्सा, एक कहानी
अब इस मकान के कई वारिस हो गए
रखवाले कहां, अब सब हकदार हो गए …

सब कुछ बंटा, दीवारें खिंच गई
बच्चे हुए बूढ़े, जर्जर दीवारें हो गई
मुश्किल है चौखट को यूं छोड़ कर जाना
पनघट पर उसकी एक झलक देख पाना
आसान नहीं, उस मुहब्बत को भुलाना
जो वर्तमान नहीं अब, गुजरा अतीत हो गए …

बदरंग झरोखे, झरती दीवारें
सूनी पड़ी वो बचपन की गलियां
मिट्टी की सौंधी खुशबू, तालाब में नहाना
कठिन होगा, सब से मुंह मोड़ कर जाना
पतझड़ बाद दरख्त तो हरा हुआ, मगर
घोंसले से उड़े जो परिंदे, वापिस कभी न आए …

एक आसमान एक जमीं है
सांसें हैं, शरीर हैं, फिर भी कुछ कमी है
रोशन था कभी गुलिस्तां
संग सींचे थे खलिहान बाग बगिया
बूढ़े पेड़, आनी थी जिन पर कलियां
माली मगर सभी, बहार आने को तरस गए …

एक थी थाली भूख भी साथ थी
चिंता की न कोई बात थी
है आज भी वही बैठक, वो आंगन
बीता यहीं पर होली /दिवाली/ सावन
कैसे कहें अलविदा, वापिस नहीं है आना
पुरखों के हाथ दुआ के, वो सर से चले गए …
__ मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान

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Sanjeev
Sanjeev
2 years ago

मनोहारी यादें, पलकें भीग गई आपके अल्फाजों की जीवंतता से, काश वो दिन लौट आएं

Manu Vashistha
Manu Vashistha
Reply to  Sanjeev
2 years ago

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