
-सुनीता करोथवाल-

मेरे पैर थक चुके हैं बाबुल
सौ गज के घर में घूमते-घूमते
एक कमरे से दूसरे कमरे के बीच की दुनिया
मुझे समेट रही है
हर काम एक दीवार से पहले
खत्म हो जाता है
अब साँझ चूल्हे के पास नहीं होता
बाजरे के सिरटों का भुनना-छिटकना
तुम्हारे खेतों में तो रौनक बहुत होगी
दूब ज्यादा हो गयी होगी नालियों पर
जंगली फूल भी बेटियों से मुस्कुरा रहे होंगे
खेतों की बाड़ से
बेरियों ने झुका लिए होंगे जरा से सिर
फूलों के वजन से
बाजरे पर झूलकर चिड़िया कर रही होंगी चोरियाँ
कपास खड़ी होगी तन कर
चाँद के फोहे उगलने को
काचर पक कर छोड़़ रहे होंगे गर्भनाल
मूँग तो पक चुकी होंगी शायद
या अभी भी कच्ची हैं मेरी
उंगलियों सी
नए नीम उग रहे होंगे बारिश के बाद
मुझे भी सौंप दो ना तुम कोई काम
नई पौध रोपने का
मेरी मुट्ठियाँ तरस रही हैं
नीम की जड़े छुपाने को
मैं हाथों से वही लौकी छूना चाहती हूँ
जो शीशम के पेड़ पर
बाबा ने बीज बनने के लिए छोड़ दी थी
मैं उन्हीं खेतों में अब फिर उगना चाहती हूँ
जहाँ धान नहीं कलाकारी फूटती है
मैं फिर गाँव लौट आना चाहती हूँ
शहर के आजीवन कारावास से अब मुक्ति चाहती हूँ।
सुनीता करोथवाल