
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
यूॅं हुआ फिर मुझे चलना पड़ा अंगारों पर।
मैने बस नाम लिखा था तेरा दीवारों पर।।
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अपने अहसास को पस्ती* की तरफ़ मत मोड़ो।
आदमी अब तो पहुॅंचने लगा सय्यारों पर*।।
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बरहमी* ज़ोरो जफ़ा ज़ुल्मो सितम हिज्रो अलम*।
प्यार का क़स्र* बना है इन्हीं आसारों पर।।
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रु नुमा हो गया फिर कर्ब ओ बला* का मंज़र।
फिर अना टिक गई चलती हुई तलवारों पर।।
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अन गिनत ज़ीस्त के अंदोह*की परवाह नहीं।
इक तेरा लुत्फ़ बहुत सैकड़ों आज़ारों* पर।।
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मुस्तक़िल * भी मुझे रहना है तुम्हारे दिल में।
शहर भी छोड़ना लाज़िम हुआ बंजारों पर।।
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अज़्मो हिम्मत को सदा साथ में रखना “अनवर”।
नाव को छोड़ न देना कभी पतवारों पर।।
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पस्ती* नीचे,
सय्यारोंपर* ग्रहों पर
बरहमी* नाराज़गी
अलम* दुख
क़स्र* महल
रू नुमा* जाहिर सामने
कर्बो बला* करबला जैसा
अंदोह* रंजो ग़म
आज़ारो* तकलीफों
मुस्तकिल* स्थाई
शकूर अनवर
वाह! क्या बात है?