
-सुनीता करोथवाल-

उम्र के सबसे हसीन दौर में हैं ये
पैंतालिस पार पुरुष
आँखों के कौर के पास बैठने लगी हैं
तजुर्बे की पंक्तियाँ
गालों पर नौजवान सी पहली बार
निकलने लगी है उम्र
झक सफेद कपड़े पहनकर
हाँ, सिर के बाल तोड़ रहे हैं दोस्ती
पर फिर भी शान से गुनगुना कर
संवार लेते हैं बची हुई जुल्फें
अदब से रखते हैं कंघी
पिछली जेब में
अब परवाह नहीं इन्हें
कि कोई क्या कहेगा
यूँ ही घर की चप्पलों में निकल जाते हैं
सजी हुई पत्नी के साथ बाजार
पुराने लॉवर टी शर्ट में
अभी बालों पर गार्नियर
एक महीने से ज्यादा चलने लगा है
सफेदी का करने लगे हैं स्वागत
बेटे के सिर को सहला कर
पहनने लगते हैं सफेद पज़ामा
अपने पिता की तरह
जेब वाले कुरते
मानने लगते हैं पत्नी की बात
पीने लगते हैं रोज सुबह की चाय
बतिया लेते हैं
काम धंधे बिजनेस के उतार चढ़ाव
निकलते हैं काम पर फॉर्मल पेंट में
यह कहकर
जाकर आता हूँ
और लौटते हुए
लाद कर लाते हैं
बेटियों की ख्वाहिशें
बेटे की माँ से लगी फरमायिशें
कभी किताब कभी सब्जियों के थैले
बैठने लगते हैं माँ के पास लौटते वक्त
करवाने लगते हैं ठीक
पिता का चश्मा
झुकने लगते हैं पेड़ की तरह
परिवार के आँगन में
लुटाने लगते हैं फल छाया ठंडी हवा
बहुत समर्पित होते हैं
ये पैंतालिस पार पुरुष
सुनीता करोथवाल

















