ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
हुए हैं जितने सितम* ज़ेरे- आसमाॅं* लिख दूॅं।
लो आज अपनी तबाही* की दास्ताॅं* लिख दूॅं।।
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कहाॅं कहाॅं पे गिरी हैं ये बिजलियाॅं लिख दूॅं।
मिलाए ख़ाक में किस किस के आशियाॅं लिख दूॅं।।
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लगी है आग तो उसको मैं आग लिक्खूॅंगा।
ज़माना लाख कहे उसको क्यूॅं धुऑं लिख दूॅं।।
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किया है फिर मेरे क़ातिल ने सर तलब* मेरा।
मैं सोचता हूॅं कि अब के जवाब हाॅं लिख दूॅं।।
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सिवाए इनके मेरे पास कुछ नहीं “अनवर”।
तुम्हारे नाम कहोतो ये जिस्मो-जाॅं* लिख दूॅं।।
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सितम*अत्याचार,
ज़ेरे-आसमाॅं* आसमाॅं के नीचे ज़मीन पर,
तबाही*बर्बादी,
दास्ताँ*कहानी,
तलब* माॅंगना, इच्छा,
जिस्मों-जाॅं* शरीर और प्राण,
शकूर अनवर
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