
-रानी सिंह-

भादो की चाँदनी रात में गाँव की स्त्रियाँ
घर के मालिक-मुख्तियार के सोने के बाद
निकल पड़ती थीं बड़का द्वार पर
जट्टा-जट्टिन खेलने के लिए
और हम बच्चों के लिए तो
मानो उत्सव ही होता
डाँट-डपट कर सुलाये जाने के बाद भी
उस रात नींद आती ही नहीं थी
और रात भींजते ही एक-एक कर
निकल भागते हम भी
बड़का द्वार पर
खूब मगन होते तब
माँ, दादी, बड़ी माँ, छोटी माँ
धोबिन काकी
नाउन भौजी
सहुआइन दादी
सब की सब गलबहियाँ किये टोली बनाकर
‘टिकवा जब-जब माँगलियो रे जट्टा
टिकवा काहे न लइले रे…’
गा-गाकर उछाह मनातीं
उनके उछाह को देख बड़ा अचरज होता
अचरज होता कि
पति द्वारा छोड़ दी गई
सुगनी बुआ
फुल पैंट-कमीज पहन जमादार बनी
कैसे रौब झाड़ रही है
कजरी काकी जो काका के लात-घूंसे खा-खाकर कहरती रहती थी
आज कैसे सरपंच बनी पंचैती कर रही है
ससुर-भसुर की रौबदार आवाज से
थर-थर कांपने वाली चाँदपुर वाली भौजी
कैसे पुलिसिया डंडे भाँज रही है
सब कुछ अलग ही लग रहा है
क्या ये सब वही
गले तक दुःख में
डूबी रहने वाली स्त्रियाँ हैं ?
और तो और ये जो
दिन-रात किचवा-किचौव्वल करने वाली
सलखी दादी और उसकी पतोहू है न
वो कैसे एक-दूसरे के साथ
हँस-बोल रही हैैं
रामगंज वाली काकी जो
एक से एक पैंतरे आजमाती हैं
छोटकी गोतनी को सताने के लिए
वो दोनों कैसे चूड़ीहारिन बनी
साथ-साथ चूड़ी बेच रही हैं
सबसे अधिक आश्चर्य तो
बड़ी माँ को देखकर होता
जो धोबिन काकी को
ओसारे भी चढ़ने नहीं देतीं
नाउन भौजी को सौ-सौ पाठ पढ़ातीं
यहाँ मत बैठो, वहाँ मत बैठो
कटोरी माँज लाओ, हाथ साफ कर लो
फिर उसमें रंग घोलो
मेरा पैर रंगने के लिए
सहुआइन दादी को झिड़कती कि
जतरा के समय पर काहे
तेल बेचने आ जाते हैं ?
जतरा खराब कर देते हैं इनका
जाइए… किसी और समय आइएगा
आज कैसे उस बड़ी माँ के
मन में बैठा छूत उड़न छू हो गया
और वह सबसे हिल-मिल कर
खुशियों की राग छेड़ रही हैं
यही वह अनोखा दृश्य था
जिसे देखने की उत्सुकता में
हमारी नींदें उड़ जातीं
और भाग कर जाते कि
देखें तो आज कौन सब आयी हैं
रोती-पिटती, दुःख की बोझ उठायी
इन पथरीली चेहरों वाली स्त्रियों को
चाँदनी रात में खिलते देखना
दिल को जितना सुकून देता
मन में उठते सवाल भी
उतने ही बेचैन करते
कभी-कभी दादी से पूछ भी लेती
पूछ लेती कि खेल-उत्सव के मौकों पर
स्त्रियों का मन और चेहरा
कैसे बदल जाता है ?
कैसे सारे भेद
सारी कड़वाहटें भूल एक ही रंग में
रंग जाती हैं ?
तो दादी लंबी सांसें खींचतीं और कहतीं
भेद ?
कौन-सा भेद और कैसी कड़वाहट ?
सारे भेद, सारी कड़वाहटें तो भ्रम हैं
एक जाल है जो बुना गया है
समाज द्वारा हम स्त्रियों के इर्द-गिर्द
जानती हो ?
जब हम उत्सवी स्त्रियाँ निकलतीं हैं
दुःख की सारी निशानियाँ त्याग कर
उत्सव मनाने के लिए
तो हकीकत में हम स्त्रियाँ लौटतीं हैं
अपने वास्तविक स्वरूप में
तब सभी स्त्रियाँ एक-सी होती हैं
रंग-रूप, चेहरे और जात से भी
जश्न मना रही होती हैं हम स्त्रियाँ
अपने स्त्री होने का
दुःख बाँट रही होती हैं एक-दूसरे का
हौसला भर रही होती हैं एक-दूसरे में
मर्दानी दुनिया में टिके रहने के लिए।
©️रानी सिंह. Rani Singh

















