‘तब तुम क्या करोगे’ ?

'बेगार से मना करने पर कर दिया जाए लहूलुहान। लोकतंत्र के नाम पर याद दिलाया जाय जाति का ओछापन । दुर्गंध भरा हो जीवन। हाथ में पड़ गए हों छाले , फिर भी कहा जाए खोदो ये गड्ढे- नालियां। नई-नवेली दुल्हन को पहली रात भेजना पड़े ठाकुर के घर। धर्म के नाम पर कहा जाए बनने को देवदासी तुम्हारी स्त्रियों को। कराई जाए उनसे वेश्यावृत्ति । तब तुम क्या करोगे' ? दलितों की पीड़ा को उजागर करते यह प्रश्न हैं साहित्यकार श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के ,जो उनकी एक कविता "तब तुम क्या करोगे" में ढले हैं

om prakash

-प्रतिभा नैथानी-

प्रतिभा नैथानी

‘बेगार से मना करने पर कर दिया जाए लहूलुहान।
लोकतंत्र के नाम पर याद दिलाया जाय जाति का ओछापन । दुर्गंध भरा हो जीवन। हाथ में पड़ गए हों छाले , फिर भी कहा जाए खोदो ये गड्ढे- नालियां।
नई-नवेली दुल्हन को पहली रात भेजना पड़े ठाकुर के घर। धर्म के नाम पर कहा जाए बनने को देवदासी तुम्हारी स्त्रियों को। कराई जाए उनसे वेश्यावृत्ति ।
तब तुम क्या करोगे’ ?

दलितों की पीड़ा को उजागर करते यह प्रश्न हैं साहित्यकार श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के ,जो उनकी एक कविता “तब तुम क्या करोगे” में ढले हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का जन्म 30 जून 1950 को मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश के बरला गांव में हुआ था। दलित समाज के अन्य सभी शोषित जातकों से इतर जाति सुधर जाने की अदम्य लालसा से वशीभूत उनके पिता ने उनका दाखिला गांव के ही एक प्राइमरी स्कूल में करवा दिया था।
क्योंकि गांव के सूदखोर महाजन ने ज्यादा ब्याज वसूलने के उद्देश्य से उनके अनपढ़ पिता को समझा रखा है कि पच्चीस चौका डेढ़ सौ होता है, असमंजस की स्थिति में यही पहाड़ा अध्यापक के सामने दोहरा देने पर “चल बे चूहड़े के ! ज्यादा होशियार बन रहा है” .. जैसे जातिसूचक उलाहने सुनने के साथ-साथ भयंकर पिटाई भी खानी पड़ती थी। सवर्ण अध्यापकों और सहपाठियों के छुआछूत भरी यातनाओं के लंबे दौर से गुजरने के बाद भी ओमप्रकाश वह एकलव्य साबित हुए जो अंगूठा कटने के बाद भी हर बार पहले से कहीं अधिक धार के साथ जीवन पथ पर आगे बढ़ते रहे।
यह साल 92-93 का था जब ‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव को एक दलित विशेषांक निकालना था, इसलिए उन्होंने कहानियां आमंत्रित की थी। ओमप्रकाश बाल्मीकि जी ने इस अंक के लिए अपनी एक कहानी ‘सलाम’ भेजी।
उनके चूहड़ समाज में विवाह के अगले दिन दूल्हे को अपने ससुराल की सवर्ण बस्ती के लोगों को सलाम करने की रस्म निभाने जाना पड़ता था। इसमें उसके साथ दलित बस्ती के सभी लोग एक जुलूस की शक्ल में जाते । कुछ पैसे, उतरन, पुराने बर्तन और गंदी-गंदी गालियों का नेग लेकर घर लौटते। गर्मी के दिनों में यदि प्यास से प्राण भी जा रहे हों तो भी पानी पीने के लिए अपने ही घर पहुंचने तक का सब्र करना पड़ेगा। यही सब नई दुल्हन के साथ भी दोहराया जाता। पहले ही दिन उसे पता चल जाता कि किन-किन घरों में उसे साफ-सफाई और इंसानों का मैला उठाने आना है।
असल में यह सवर्ण जाति के लोगों द्वारा दलितों का आत्मविश्वास डिगाने की एक साजिश थी, जिसे परंपरा मानकर निभाते जाना एक मजबूरी ।
राजेंद्र यादव को यह कहानी बहुत मर्मस्पर्शी लगी। उन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि को आत्मकथा लिखने का सुझाव दिया।
इतनी जल्दी आत्मकथा लिख रहे हो ? अपनी जाति को क्यों और नंगा करने पर तुले हुए हो? ऐसा करके तुम सवर्णों की आंख की किरकिरी बन जाओगे .. लिख लो ! मगर कौन है , जिसे इस गलीज साहित्य को पढ़ने में रुचि होगी… इत्यादि-इत्यादि बातों से वाल्मीकि जी का हौसला टूटा तो सही लेकिन फिर भी जब क़लम उठा ही ली तो ‘जूठन’ जैसी एक अमर कृति का जन्म हुआ। दलित साहित्य में इससे पहले ऐसा कभी नहीं लिखा गया था।
दलित साहित्य और सम्मेलनों में सवर्णों को जी भर कोसना और जमकर गालियां देना आम बात है, लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का बड़प्पन कि जिंदगी के समस्त कटु अनुभवों को लिखते समय कहीं भी उन्होंने अपना संयम नहीं खोया और बेहद संतुलित भाषा में सरल भाव के साथ उन्होंने ‘जूठन’ के सभी पृष्ठ पूरे किए।
इसका पहला भाग उनके जीवन के चौथे दशक में ही आ गया था। दूसरा भाग 2013 में उनकी मृत्यु के बाद आया।
सवर्णों के घर साफ-सफाई करने जाना, मैला ढोने और बेगार के बदले में दूर से फेंकी हुई झूठी रोटियां लेकर घर आने की पीड़ा को व्यक्त करना बहुत आसान न था। वो कहते हैं कि ‘जूठन’ के हर शब्द के साथ मैं पुनः उसी यातना से गुजरता जाता था, जिसके खिलाफ़ मुंह खोलने का साहस हम सदियों से ना जुटा सके थे।
‘जूठन’ ने सभी वर्ण और वर्ग के पाठकों की संवेदनाओं को बुरी तरह झकझोर दिया। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के लेखन को चंहुओर प्रशंसा मिली। वर्ष 2000 में उनका कहानी संग्रह ‘सलाम’ आया । इस संग्रह में जहां सभी कहानियां दलित समाज के दुश्वारियां का आईना थीं, वहीं वर्ष 2004 में उनके अगले कथा संग्रह ‘घुसपैठिए’ में दलितों की बेहतरी के लिए सरकार द्वारा चलाए जा रहे प्रयासों के तहत उच्च शिक्षण संस्थानों एवं सरकारी नौकरियों में उन्हें आरक्षण दिए जाने पर भी एक प्रतिनिधि कहानी शामिल थी। सवर्ण जाति के लोग गांधीजी और अंबेडकर को गालियां दे रहे हैं कि इन्हीं के नियम-कानूनों की शह पाकर स्कूल- कॉलेज और नौकरियों में दबे-कुचले समाज के लोग घुसपैठ करने लगे हैं।
वर्ष 1989 में ‘सदियों का संताप’ के बाद वर्ष 1997 में उनका काव्य संग्रह – ‘बस बहुत हो चुका’ आया और उसके बाद ‘अब और नहीं’ । यह सभी दलित चेतना से संबंधित कविताओं का संग्रह थे। ‘ठाकुर का कुआं’ नामक कविता साहित्यिक मंचों पर खूब सुनाई जाती है।
जाके पैर परी न बिवाईं , सो क्या जाने पीर पराई। साहित्य बिरादरी के कई साहित्यकारों ने उन पर आरोप लगाया कि उनके लेखन में बनावटी पन है। वर्ण व्यवस्था के प्रति अति आक्रोश है
तब इसके जवाब में उनका अगला काव्य संग्रह आया ‘शब्द झूठ नहीं बोलते’।
वास्तव में अगर देखा जाए तो ओमप्रकाश वाल्मीकि का समस्त रचना संसार उनकी आरंभिक कविता “तब तुम क्या करोगे” का ही विस्तृत रूप है।
वर्ष 1993 से 1913 तक अंबेडकर सम्मान, परिवेश सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान के साथ अन्य कई प्रतिष्ठित सम्मान ओमप्रकाश बाल्मीकि जी को साहित्य सेवा के लिए प्रदान किए गए।
अन्य लेखकों के मुकाबले उनकी रचनाएं कुछ कम हैं, किंतु जितना भी उन्होंने लिखा, वह रिसता है एक ताजे घाव की तरह।
ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं कि हम उस समाज में रहते हैं, जिसकी फूहड़ संस्कृति धर्म के नाम पर जानवर का मूत्र तो पी सकती है लेकिन जाति के नाम पर इंसानों का छुआ पानी नहीं।
पेट के कैंसर से जूझते हुए दलित साहित्य के इस अमर सेनानी श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का देहावसान 17 नवंबर 2013 को देहरादून में हो गया था। कलम के इस सच्चे सिपाही को उनकी नौंवी पुण्यतिथि पर हार्दिक श्रद्धांजलि।

(लेखिका डिजिटल क्रिएटर हैं)

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