
मनवा हुआ लुहार
-महेन्द्र नेह-
(कवि, गीतकार और समालोचक)
साधो, मनवा हुआ लुहार।
भट्टी में भभका दावानल सुर्ख हुए अंगार।
दमका लौह, खिला हो जैसे जंगल में कचनार ।
तन बन गया धनुष अग-जग में गूंज रही टंकार ।
मोम बन गया लौह, ढलेगा मन चाहा आकार।।
नहीं नहीं हम दीन-अपाहिज नहीं नहीं लाचार |
हम हैं समय, समय है हमसे, हमसे नया विचार ।।
हम हैं गति के अराधक हम उन्नति के आधार ।
हम से चाँद-सितारे हम से बादल राग मल्हार ।।
कालकूट विष पीकर हमने मरण वरा सौ बार ।
मृत्युंजय हम, हमसे जीवित यह गतिमय संसार ।।
(महेन्द्र नेह की ‘हमें साँच ने मारा’ पद-संग्रह पुस्तक से साभार)