
वो सन्दल नहीं था
-चांद शेरी-

कहीं आकाश पर बादल नहीं था
घटा की आंख में काजल नहीं था
ये जहरीले शजर नफरत की बेलें
यहां पहले तो ये जंगल नहीं था
नजर कोसों से आता था हमें जो
वो अब उस गांव में पीपल नहीं था
फटे अखबार पर सोए हुओं को
खयाले बिस्तरे मखमख नहीं था
थी सन्दल सी बजाहिर उसकी सूरत
मगर सीरत का वो सन्दल नहीं था
अभी था हौसला उसका सलामत
परिन्दा इस कदर घायल नहीं था
भिगोया उसको ‘शेरी’ आंसुओं ने
वो भीगा दूध से आंचल नहीं था.
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वो भीगा दूध से आंचल नहीं था… नज़्म की इन पंक्तियों में शायर चांद शेरी ने जिंदगी का निचोड़ पेश कर दिया है