
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

मरहले* इसके पुर ख़तर* बाबा।
ये मुहब्बत की है डगर बाबा।।
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कौन आया है लौटकर बाबा।
फिर ख़लाओ* का है सफ़र बाबा।।
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बज रहा है सुनो गजर* बाबा।
अब तो नज़दीक है सहर* बाबा।।
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लुट ही जाते हैं मालो-ज़र* बाबा।
तुमको किस बात का है डर बाबा।।
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शगल* कुछ और हो किफ़ालत* का।
ये फ़क़ीरी नहीं हुनर बाबा।।
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ये तो ऐवान* हैं हुकूमत के।
“आ गये तुम इधर किधर बाबा”।।
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अब इबादत में भी दिखावा है।
अब दुआ में नहीं असर बाबा।।
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ऐसे आया वो ज़िंदगी में मेरी।
कर गया सब इधर उधर बाबा।।
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इस पे क़िस्सा तमाम हो जाये।
उसकी चौखट हो अपना सर बाबा।।
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रेत तपती है पाॅंव जलते हैं।
दूर तक भी नहीं शजर बाबा।।
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जिसने भटका दिया मुझे “अनवर”।
कैसे आता वो राह पर बाबा।।
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मरहले*पड़ाव,
पुरख़तर*ख़तरों से भरी,
ख़लाओं*शून्य
गजर बजना*सुबह के वक्त घड़ियाल का बजना,
सहर* प्रात काल सुबह,
मालो-ज़र* रुपया सोना
शगल* काम, पेशा,
किफ़ालत*भरण पोषण,
ऐवान*सदन’ महल,
शकूर अनवर
9460851271