चन्द्रयान-3 : बना रहे साइंटिफिक टेम्परामेंट

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#सर्वमित्रा_सुरजन
ब्रह्मांड के सबसे खूबसूरत तथा अब तक ज्ञात एकमात्र मानवीय बस्ती वाले ग्रह अर्थात धरती से अपने सबसे नज़दीक के खगोलीय पड़ोसी चन्द्रमा को लक्षित कर 14 जुलाई को दागे गये चन्द्रयान-3 ने आखिरकार बुधवार की शाम अपनी यात्रा के 42वें दिन शाम 5 बजकर 45 मिनट पर लैंडिंग की प्रक्रिया प्रारम्भ की। ठीक 6 बजकर 4 मिनट पर करोड़ों देशवासियों का सपना पूरा करते हुए उसके लैंडर ने चांद के सतह को छू लिया। उस वक्त वहां सुबह थी।
वैसे तो चन्द्रयान-3 ने पृथ्वी के उपग्रह या चांद कहे जाने वाले इस उपग्रह की ओर बढ़ते हुए प्रारम्भिक चरण से ही सफलता के संदेश दे दिये थे क्योंकि उसके सारे उपकरण एवं सारी प्रणालियां बिलकुल ठीक काम कर रही थीं। पुराने अनुभवों से समृद्ध हुए और पिछली खामियों से सबक लेते हुए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र (इसरो) की प्रतिभा व ज्ञान के प्रतीक चन्द्रयान-3 ने अपनी इस कामयाबी से आधुनिक भारत के निर्माताओं की दूरदर्शिता एवं वैज्ञानिक सोच का फिर से लोहा भी मनवाया है।
करीब साढ़े चार अरब वर्ष पहले पृथ्वी से मंगल गृह के आकार के एक बड़े ग्रह के टकराने से, जिसे खगोल वैज्ञानिकों ने ‘थियाÓ नाम दिया है, पृथ्वी से बड़ी मात्रा में मैटर पिघलकर द्रव्य के रूप में अंतरिक्ष में फैल गया। आपस में जुड़ते और गुरुत्वाकर्षण के कारण करोड़ों वर्षों तक पृथ्वी की लगातार परिक्रमा करते हुए पृथ्वी के उस साथी उपग्रह का निर्माण हुआ जिसे आज हम चांद या चंद्रमा के नाम से जानते हैं और जो एक ओर तो विविध कला-विधाओं में रुचि रखने वालों के लिए कभी प्रेरणा तो कभी उपमा या कभी अलंकार के रूप में काम करता है। दूसरी तरफ़ वह खगोल वैज्ञानिकों व भौतिकशास्त्रियों के लिये जीवन व अनेक जटिल सिद्धातों को हल करने का जरिया भी है।
पृथ्वी से अन्य किसी भी खगोलीय पिंड के मुकाबले इसकी दूरी सबसे कम है- केवल 3,84,400 किलोमीटर। इसका व्यास पृथ्वी का एक चौथाई है और पृथ्वीवासियों के लिये आसमान में सूर्य के बाद यह सबसे चमकदार निकाय है- बावजूद इसके कि उसकी खुद की रोशनी नहीं है और वह सूर्य की रोशनी के परावर्तित होने से हमें दिखता है। उस पर दिखने वाले असंख्य दाग दरअसल उसकी सतह से लाखों उल्का पिंडों के टकराने से बने हैं जिसने बड़े गड्ढों का निर्माण तो किया ही है, उसे काफी हद तक गोलाकार बनने में मदद भी मिली है।
पृथ्वी का यह एकमात्र उपग्रह (चांद) बेहद ठंडा है और उसका गुरुत्वाकर्षण बहुत कम है। यहां वायुमंडल अनुपस्थित है और पृथ्वीवासियों को इसका बहुत कम हिस्सा दिखलाई पड़ता है। चांद का दक्षिणी हिस्सा कभी भी सूर्य के सामने न आने से वहां और भी ज्यादा ठंड है। यहां तापमान -203 से -243 डिग्री सेल्सियस तक होता है। वैसे वैज्ञानिकों का मानना है कि वहां बड़ी मात्रा में ठोस रूप में पानी मौजूद है। अब तक जितने भी मून मिशन में गये हैं वे सारे उन हिस्सों पर उतरे हैं जो सूर्य के सामने होते हैं लेकिन चन्द्रयान-3 दक्षिणी हिस्से में उतरा है। यह भारतीय वैज्ञानिकों की विशेष उपलब्धि है।
ऐसे अनेक कारणों से चन्द्रमा एवं चन्द्रयान-3 लोगों की उत्सुकता का कारण रहा है और हर व्यक्ति इसके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाहता है। पृथ्वी के साथ ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड की रचना के कारकों और भविष्य को जानने का मानव के लिये सबसे नज़दीक का जरिया चंद्रमा ही है। पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत की जानकारी से लेकर भविष्य में पृथ्वीवासियों के लिये वैकल्पिक मानव बस्तियों की सम्भावना टटोलने तक के लिये खगोलशास्त्री व वैज्ञानिक लम्बे समय से चांद को निहारते रहे हैं। इसके बारे में वैज्ञानिक समझ ज्ञान का पैमाना रहा है। इस मिशन का बड़ा महत्व इस लिहाज से भी है कि इस सफलता ने भारत को अमेरिका, रूस और चीन जैसे गिनती के देशों की श्रेणी में बैठाया है। इसका श्रेय निसंदेह भारत के सार्वजनिक उपक्रमों के सिरमौर कहे जाने वाले इसरो के वैज्ञानिकों को जाता है। उनकी कड़ी मेहनत, ज्ञानार्जन की उत्कंठा, मेधा और चेतना ने सभी भारतीयों को आज यह महान उपलब्धि दिलाई है।
इस मिशन के बारे में आगे भी खूब चर्चा होती रहेगी और सम्भव है कि इसका श्रेय लेने की छीना-झपटी भी हो, परन्तु यह ऐसा अवसर है जब हमें अपने राष्ट्रीय चरित्र से उस गुम होते फिनोमेना को पुनर्जाग्रत करने का संकल्प लेना होगा जिसका उल्लेख भारतीय संविधान में ‘साइंटिफिक टेम्परामेंटÓ के नाम से जाना जाता है और देश में इसे निर्मित करना सरकार का दायित्व माना गया है। आधुनिक भारत के निर्माता व प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने केवल यह शब्द (साइंटिफिक टेम्परामेंट) ही नहीं दिया बल्कि इस भावना के अनुकूल समाज बनाने में इसरो जैसी संस्थाएं दीं एवं डॉ. विक्रम साराभाई, सतीश धवन आदि से लेकर एपीजे अब्दुल कलाम जैसे राकेट वैज्ञानिकों को निखरने एवं उन्हें अपनी प्रतिभा के श्रेष्ठ प्रदर्शन करने का माहौल दिया।
देश की इस वैज्ञानिक चेतना की विरासत को बनाये रखने में सारी सरकारों ने मदद की लेकिन पिछले कुछ समय से विज्ञान की जगह आस्था और अंधविश्वास ने ली है तथा जिसे मौजूदा सरकार राजनैतिक कारणों से पूरा बढ़ावा दे रही है। यह दुर्भाग्यजनक और चिंताजनक दोनों ही है। इस मायने में चन्द्रयान-3 एक बेहद कठिन टास्क माना जा सकता है कि ऐसे वक्त में जब देश के छात्रों व युवाओं की रुचि विज्ञान में लगातार घट रही है, नाले की गैस से चाय बनाने व पकौड़े तलने, ताली-थाली बजाकर व मोमबत्तियां जलाकर कोरोना भगाने, बादलों में छिपकर रडार को चकमा देने और टर्बाईन से पानी व ऑक्सीजन को अलग करने वाले वैज्ञानिकों का बोलबाला हो, प्रयोगशालाएं सूनी हो रही हों और दुनिया के सारे रहस्यों को सुलझाने के सिद्धांत पुरानी किताबों में पाये जा रहे हों- यह उपलब्धि कई गुना बढ़कर महसूस की जानी चाहिये।
(देवेन्द्र सुरजन की वाल से साभार)
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