-देवेन्द्र कुमार शर्मा-

बचपन में मैंने जब होश सम्भाला तो हम ईदगाह आगरा रेलवे कॉलोनी में रहते थे। स्टेशन से 200 मीटर की दूरी पर हमारा रेलवे क्वार्टर था। रेलवे स्टेशन पर टी स्टाल हमेशा स्टेशन प्लेटफार्म पर होते हैं लेकिन ईदगाह स्टेशन पर चाय की दूकान स्टेशन के पीछे कॉलोनी की तरफ स्थित थी। दुकान एक छोटा सा कमरा था और उसके बाहर चाय बनाने की भट्टी लगी थी। कमरे के पीछे वाली दीवार पर तामचीनी के पांच बोर्ड लगे थे जिन पर चाय के प्रचार प्रसार के विज्ञापन बने हुए थे। जैसे “बे नशे की प्याली है, दिल खुश करने वाली है.” चाय पीने के फायदे, चाय बनाने की रीति आदि।

हम खेलते हुए वहां पहुँच जाते थे और मैं इन बोर्डों पर लिखी हुई इबारतों को पढ़ता रहता था जो मुझे अच्छी तरह याद हो गईं थी।
इसके बाद 1954 में पिता जी का तबादला हो गया और हम ईदगाह से ‘आगरा ईस्ट बैंक’ आ गए। ईस्ट बैंक का नाम अब रेलवे में पुराने लोगों को ही याद होगा। अब ये इलाका यमुना ब्रिज रेलवे स्टेशन से जुड़ गया है।

अपनी रेलवे सर्विस के दौरान 1991 में मैं आगरा फोर्ट स्टेशन पर तैनात था। प्लेटफार्म नंबर 1 पर चाय की दूकान थी। इस प्लेटफार्म की चौड़ाई कुल 6 मीटर थी जो यात्रियों के बढ़ते दवाब के कारण बहुत कम महसूस होने लगी थी। इसलिए प्लेटफार्म पर स्थित टी स्टाल, बुक स्टाल आदि सभी दुकानों को वहां से हटा कर पीछे सेट किया जा रहा था। जब टी स्टाल को तोडा जा रहा था तो मैंने देखा कि लोहे की चादर पर नीले पेंट के नीचे से हिंदी में लिखे हुए कुछ अक्षर झलक रहे हैं जो इन टी बोर्ड पर छपे हुए थे।

ये पांच बोर्ड मैंने टी स्टाल के मालिक से ले लिए और उस को इनकी जगह बाज़ार से खरीद कर लोहे की शीट दे दी।
अंग्रेजों के आने से पहले भारत में चाय को कोई जानता नहीं था। चाय का प्रचार प्रसार उस ब्रिटिश हकूमत ने किया जिसका भारत पर 1947 के पहले राज था। चाय बीमारियों हैजा, पेचिस से बचाती है।
चाय बनाने का जो तरीका अंग्रेजों ने बताया था उस तरह की चाय अब अभिजात्य वर्ग के कुछ लोग ही पीते हैं। अब तो चाय को चाय पत्ती और दूध डाल कर खूब उबाला जाता है तभी कड़क चाय बनती है।

ऐसा बताया जाता है कि चाय के ये बोर्ड 1930 में रेलवे स्टेशनों पर लगाए गए थे जो अब तक शायद ही किसी ने सम्हाल कर रखे हों। मैंने चाय के इतिहास पर बहुत से लेख पढ़े हैं लेकिन किसी में इन बोर्ड का उल्लेख नहीं देखा। किसी को पता हो तो बताए। एक बात और है। उस समय एक कप चाय एक आने की मिलती थी जो अब दस रूपये की मिलती है।
(लेखक रेलवे के सेवानिवृत अधिकारी हैं और पर्यावरण, वन्य जीव एवं पक्षियों के अध्ययन के क्षेत्र में कार्यरत हैं)
ये बोर्ड अनमोल धरोहर हैं।घर के बड़े लोगों से सुनते थे कि किस तरह अंग्रेजों ने घर घर चाय पहुंचा कर लोगों को उसका मुरीद कर दिया।।
Sharma Sahab, it is amazing, that you have preserved these boards for such a long time & now showed to new generation. These may be kept in Rail Museum as old monuments.
इन बोर्ड को रेलवे म्यूजियम में रखने का आपका सुझाव महत्वपूर्ण है। आने वाली पीढी को जानकारी मिलेगी।