
श्वान की व्यथा
-डॉ. समय सिंह मीना-

मस्त चाल और थुल थुल काया
देख श्वान मिल मन मुस्काया
बड़े सुखी लगते हो भाई
कहकर अपनी बात बढ़ाई
रोज रोज और गली गली हम
भागे भागे फिरते हैं
कहीं मिली सूखी रोटी तो
कहीं दुत्कार हम सहते हैं।
जैस तैसे इधर-उधर से
जूठन आदि खाते हैं
सर्दी हो या तपन फुहार फिर
बचते बचते फिरते हैं
कभी प्रताड़ित हो अपनों से
बहुत दंश हम सहते हैं
लिपट एक दूजे से फिर भी
सारी रैन बिताते हैं।
बहुत कही हमने अपनी तो
आओ कुछ बतियाते हैं
जॉनी, बंटी, शेरू बनकर
बहुत खूब इठलाते हो
क्या बताऊं हाल स्वयं के
नहीं समझ तुम पाओगे
सुनकर मेरी दिली व्यथा को
बहुत खूब पछताओगे
नहीं घूम पाता मैं तुम सा
बांधा बांधा फिरता हूं
एक कदम अपनी मर्जी से
नहीं मैं चल पाता हूं
दौड़-धूप, परिश्रम क्या हैं
मुझे नहीं पता यह सब
जॉनी, टॉनी नाम विविध सुन
दिनभर करता हूं करतब
खाना-पानी बिन आयास सब
पाकर में सुस्ताता हूं
रहने को महल
रोज़ रोज़ की यही कहानी
नया नहीं मेरे जीवन में
सुख-सुविधाएं पाकर भी
चैन नहीं मेरे तन-मन में
चढ़ अटारी ऊपर से मैं
देख तुम्हें ललचाता हूं
लोट-पोट होकर मिट्टी में
खूब खेलना चाहता हूं
मत बहको देखकर मुझको
नहीं तुम सा जीवन यह यार
नहीं है अपने संगी साथी
नहीं अपनों सा यहां प्यार
वह जीवन भी क्या जीवन है
जिसमें आत्म सम्मान नहीं
जंजीर बंधा फिरता दिनभर
मुझे यह जीवन रास नहीं
सुन बंटी की जीवन गाथा
श्वान भूल गया आत्म व्यथा
बोल पड़ा मित्रवर तुमने
आंख खोल मेरी रख दी
नहीं रखा कुछ उस जीवन में
जिसमें स्वतंत्रता परे कर दी ।
डॉ. समय सिंह मीना
सहायक आचार्य, संस्कृत
राजकीय कला महाविद्यालय, कोटा
मो.नं. 9468624700