
-मनु वाशिष्ठ-

घर में सफाई करते हुए कई वर्ष पुराना हाथ का पंखा मिल गया, बेचारा धूल खा रहा था उसे फेंकने का बिल्कुल भी मन नहीं होता। गर्मियों में लाइट चली जाए तब यही काम आता है। आज भूली बिसरी यादों में इसकी भी कहानी तो बनती है। हो भी क्यों ना, गर्मी को मात देने में हाथ वाले पंखों का अस्तित्व बेहद पुराना है, विभिन्न आकार प्रकार गोल, चंद्राकर, चौकोर हाथ के पंखे मिलते थे, इन्हें हिला डुला कर हवा की जाती थी। इन्हें ब्रज क्षेत्र/उत्तर भारत में #बीजना भी कहते हैं। बड़े पंखों को बीजना और छोटे पंखों को बीजणी कहते हैं। इन्हें बहुत सुंदर सुंदर आकार में विभिन्न रूपों में बनाया जाता है। जिन्हें शादी ब्याह, राखी सोहगी, जन्म से जुड़े संस्कार आदि में सामान के साथ दिया जाता रहा है। पहले हाथ के पंखे बनाना एक हुनर माना जाता था। महिलाएं, लड़कियां इस हुनर में पारंगत होती थीं। ताड़, खजूर, बांस, गेहूं की बाली की सींक, धागे, खस, घास आदि से सुंदर आकृतियों वाले पंखे बनाए जाते हैं। मोर के पंखों से भी हाथ का पंखा बनाया जाता है, दक्षिण भारत में यह पंखे खूब मिलते थे। भारतीय संस्कृति में भी अतिथि/ मेहमान/रिश्तेदार आदि के भोजन करते समय पंखा झलने की परंपरा रही है, जोकि प्यार और सम्मान जनक माना जाता था। मंदिरों में देव प्रतिमाओं पर भी चंवर ढुलाने की परंपरा है, ये भी एक तरह से पंखे ही हैं। अब ये सब सजावटी सामान बन कर रह गए हैं। समय के साथ इनकी मांग कम जरूर हुई है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में, बिजली गुल होने पर अभी भी हाथ के पंखों का इस्तेमाल दिखाई देता है। साथ ही सुंदर डिजाइन वाले पंखों को (जापानी पंखे हवा के साथ सजावट में भी प्रयोग किए जाते हैं) शोपीस की तरह सजा कर रखने में शहर वाले भी पीछे नहीं।
18वीं सदी के अंत में छत पर लटकाने वाले पंखों का चलन शुरू हुआ, ईस्ट इंडिया कंपनी के इतिहास में भी इसका उल्लेख मिलता है। सेठ साहूकार, जमींदार, राज शाही, सरकारी ऊंचे ओहदे वाले, रईस घरों और अंग्रेजों के यहां पंखा झुलाने के लिए नौकर रखे जाते थे। हमारे यहां भी दादाजी की बैठक में इस तरह का पंखा लटका हुआ हमने देखा है, जिसमें छत पर दो बड़े कुंदों में रॉड में छालर वाला, मखमल के कपड़े का पंखा लटका हुआ था, इसके ऊपरी हिस्से पर एक डोरी लगी होती थी। उसमें बंधी डोरी दरवाजे के बाहर एक गिर्री में से निकाली गई थी, जिससे कोई कामगार कारिंदा बाहर बैठ कर झुलाते रहते थे। मैं ने किसी को झुलाते हुए तो नहीं देखा, लेकिन लटका हुआ पंखा अवश्य देखा, क्योंकि तब तक बिजली के पंखे लग चुके थे। तो ये थी बीजना/बीजणी की छोटी सी कहानी।
__मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान