
– विवेक कुमार मिश्र-

चाय पर चल पड़ना, चाय के साथ होना मूलतः जीवन प्रियता का ही एक उदाहरण होता है। चाय विचार यात्रा और कर्म यात्रा से इस तरह जोड़ देती है कि आप अपने आपको कर्म संसार में लगा देते हैं। चाय पीना और चाय पिलाना इसीलिए एक सभ्यता मूलक कार्य योजना है …जब आप चाय पीने चलते हैं तो कार्य पर भी चलते हैं। चाय पीकर सो नहीं सकते कुछ न कुछ कार्य की दिशा में कुछ न कुछ गति की दिशा में चाय आप से आप जोड़ देती है। चाय पीता आदमी संसार की क्रियाशीलता में अपने ढ़ंग से योग दे रहा होता है। चाय पर चलना ही काफी हो जाता है कि आदमी अब कार्य करेगा। नींद, आलस , उब , एकरसता से निकाल कर गति , ताजगी और उर्जा व उत्साह के साथ सीधे तौर पर जोड़ने का कार्य यह जो चाय करती है वह कोई और कैसे कर भी नहीं कर सकता। अब आप चाय कम पीते हैं या ज्यादा पीते हैं तो इससे कोई खास फर्क भी नहीं पड़ता चाय की लोकप्रियता पर , यह हर संसार में अपने ढ़ंग से लोकप्रिय हो जाती है संसार को कार्य संस्कृति से जोड़ने के लिए भी बराबर चाय पर बुलाया जाता है। चाय पीकर कार्य करते हैं और इस तरह कार्य एक अवस्था एक लक्ष्य तक पहुंच जाता है । जो चाय नहीं पीते वो भी दूर नजदीक से चाय की मूल्य और महत्ता को समझते हैं और यह कह दिया करते कि बस सुबह शाम दो ही चाय लेते हैं, या ज्यादा नहीं लेते, पर इससे चाय का जादू या आकर्षण कम नहीं होता। चाय जब पक रही होती है और उसकी महक भाप के साथ उड़ती हुई आती है तो सहज ही मन चाय महिमा का बखान करने लगता है । इस तरह वह चाय यात्रा पर निकल जाता है । दुनिया भर की विचार यात्राएं चाय के साथ जुड़ी होती हैं। संसार की गति और क्रियाशीलता में चाय का अपना ही जादू है । इसका प्रभाव ही कुछ इस तरह होता है कि आदमी कार्य की दिशा में चल पड़ता है । चाय तो बस चाय है वो चीनी कम हो या चीनी ज्यादा । बस चाय के संग सहज रंग में कार्य की दिशा में आदमी चल पड़ता है ।