अतिक्रमियों से नहीं बचा पाए 1857 के क्रांतिकारी सिपाही का मकबरा

पुराने कोटा शहर में मकबरा एक प्रमुख स्थान है। बात चलती है तो मकबरा के साथ घंटाघर का भी नाम आता है। यहां सन् 1857 की क्रांति में शहीद हुए क्रांतिकारी सैनिक चांद खां की मजार है जिसे बाद में मकबरे में तब्दील कर दिया गया।

chand khan ka makbara

-धीरेन्द्र राहुल-
कोटा शहर को बर्बाद करने में कोटा नगर निगम, जो पहले नगर परिषद थी के भ्रष्ट और निकम्मे कारिंदों ने बड़ा योगदान दिया। पुराने कोटा में आप जहां चाहे, वहां पसर सकते थे। निगम के कारिंदे आते थे। नापजोंख का नाटक करते थे और वसूली कर लौट जाते थे। इस तरह पुराने कोटा के अनेक ऐतिहासिक स्मारक भ्रष्टाचार की बलिवेदी पर कुरबान हो गए हैं। उसमें मकबरा भी एक है। पुराने कोटा शहर में मकबरा एक प्रमुख स्थान है। बात चलती है तो मकबरा के साथ घंटाघर का भी नाम आता है। यहां सन् 1857 की क्रांति में शहीद हुए क्रांतिकारी सैनिक चांद खां की मजार है जिसे बाद में मकबरे में तब्दील कर दिया गया। पीढ़ियों से यहां रह रहे लोगों को भी नहीं पता कि चांद खां कौन थे ? लोग मानते हैं कि कोई पीर औलिया या फकीर बाबा थे।

धीरेन्द्र राहुल

ताज्जुब की बात तो यह कि भरे बाजार में मकबरे के दोनों ओर दुकानें और दो मंजिला मकान बनाने वाले 70 वर्षीय अब्दुल सत्तार और उनके भाई बिन्दु को भी नहीं पता कि चांद खां कौन थे ? वे कहते हैं कि वे हमारे बुजुर्ग थे, बाबा थे। हम उनके पुजारी हैं। हम ही यहां साफ सफाई करते हैं। रंगाई पुताई करवाते हैं। कोई यहां चिराग जलाने भी नहीं आता। हम चंदा भी नहीं करते। यह पूछने पर कि आप यहां कब से रह रहे हैं तो वह कहते हैं कि पीढ़ियां हो गई। दरबार के जमाने में झाला हाउस में कोर्ट बैठती थी। मेरे पिता ने वहां से केस जीता, जिसके कागजात भी हमारे पास हैं।

जबकि इस मकबरे के ठीक सामने सर्राफा की दुकान पर काम करने वाले छीतरलाल गौतम की उम्र भी 70 साल है। वे कहते हैं कि सन् 1977 से मैं यहां काम कर रहा हूं। उस समय यहां कोई अतिक्रमण नहीं था। मकबरे के चारों ओर का स्थान खाली था। फकीर और भिक्षुक सुस्ताते रहते थे। एक बार गुना के रहने वाले एक श्रद्धालु मुझ से पूछने आए कि चांद शाह बाबा की मजार कहां है? आसपास वालों से पूछा तो पहली बार पता चला कि ये चांद बाबा की मजार है। इतिहासविद् फिरोज अहमद का कहना था कि सन् 1960 में मेरे ससुर मकबरा थाने में कास्टेबल थे जो मकबरे से सटकर ही बसा है। मैंने भी हमेशा मकबरे के आसपास के स्थान को खाली ही देखा है, मकबरे के दोनों ओर हुए अतिक्रमण 1980 के बाद के हैं। हमने अब्दुल सत्तार से पूछा कि सरकार अगर तुम्हें रहने को मकान और व्यापार करने को दुकान दे तो क्या आप दोनों भाई वहां शिफ्ट हो सकते हैं तो वे कहते हैं कि रहना यहां, धंधा यहां अब जाएंगे कहां ? मकबरे के एक ओर जनता बैण्ड तो दूसरी ओर चाट भंडार की दुकान खुली हुई थी। सामने ही नल और बिजली का खंभा खड़ा था। सामने ही आटो और लोडिंग वाहन खड़े थे। पता भी नहीं चलता कि यहां कोई वीर सिपाही सो रहा है। इस स्थान को अतिक्रमण से मुक्त करवाने की जरूरत है। मकबरे के सामने मिले नौशेंमियां ने कहा था कि गलती हमारी भी है कि हम मकबरे को अतिक्रमियों से नहीं बचा पाए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)

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