
-डॉ.रमेश चंद मीणा-

भाव;अंतर्मन से नि:सृत होकर भावित होता है। भाव का जब अंतर्मन में अभ्युदय होता है, तब वह पूर्णतः अमूर्त रहता है।प्रस्तुत अमूर्त भाव ही सृजनात्मक-रचनात्मक व्यक्तित्व का आश्रय पाकर भाव परिपाक अवस्था को प्राप्त करता है। यहीं भाव कलाकृति-रचना का स्वरूप ग्रहण करता है। यह भाव की मूर्त स्थिति है। भाव ;विचार का ही सूक्ष्म स्वरूप है। विचार मात्र में ही वह असीमित ऊर्जा है जो व्यष्टि से लेकर समष्टि को गतिमयता प्रदत्त करता है। भाव के अभाव में सब शून्य सा है । भाव; अभिव्यक्ति की शून्य से शिखर तक कि यात्रा का अखण्ड सहचर है। कलाकृति;एक सह्रदय कलाकार का वह प्रयास है जिसके माध्यम से वह अपनी भावाभिव्यक्ति को मूर्त स्वरूप प्रदान करता है। कलाकृति-रचना का आधार ग्रहण कर सहृदय विशेष का यह व्यक्तिगत भाव सामुदायिक बाना ग्रहण करता है।

भाव-शिल्प सौष्ठव समतर रूप से अभिव्यक्ति तत्व को रूपायित करने में सहगामी है
सम्प्रति, नितान्त व्यक्तिगत विचार सामुदायिक बाना ओढ़कर अब लोक मन से जुड़ जाता है। लोक में अवस्थित सह्रदय रसिक ;कला-कृति से जुड़कर ; उससे अपना तादात्म्य स्थापित करता हैं। वह;उस कला-कृति से संवाद करता प्रतीत होता हैं। उस कला-कृति के गूढ़ मूल्यों का अवगाहन सहृदय रसिक करता है। कला-कृति के कथ्य की बुनावट को वह अपने अनुभवों के स्पर्श से छूता है, महसूस करता हैं। जब सहृदय रसिक कला-कृति को देखता है, पढ़ता है……. तब वह उसके बाह्य सौंदर्य भर को टटोलता है। इसके बरकस जब अर्थ ग्रहण करता तब सह्रदय आंतरिक सौंदर्य में डुबकी लगाता प्रतीत होता हैं। इसी का सम्मिश्रण कला-कृति का विशुद्ध प्रत्यक्षीकरण है। भाव-शिल्प सौष्ठव अभिव्यक्ति के परिपाक में एक ओर अन्योंनाश्रित है, वहीं दूसरी ओर;स्वमेव प्रथक-प्रथक अस्तित्व भी रखते है……. जिससे ये एक-दूसरे से अलग पहचान बचाये रखते हैं। भाव-शिल्प सौष्ठव समतर रूप से अभिव्यक्ति तत्व को रूपायित करने में सहगामी है …….अभिव्यक्ति के वैशिष्ट्य को बुनता है।

विरोधाभास में ही;सृजन-रचना का लावण्य सन्निहित है
कला-साहित्यगत अभिव्यक्ति का मूल है – “सत्यंशिवमसुन्दरम”।सत्य का ;कल्याणकारी उद्देश्य के लिए;सुंदर-सहज ढंग से प्रस्तुतीकरण ही इस कथन का भावार्थ है। फलतः कला-साहित्यगत अभिव्यक्ति का मूल हेतु है-लोक हित। वस्तुतः प्रत्यक्ष ….अन्यथा परोक्ष रूप से लोक हित ही; सृजन-रचना का साध्य है।लोकमन,रूपप्रद कलाओं (चित्र,मूर्ति,वास्तुकला) के अंतर्गत प्रसूत सृजन को देख-छूकर आह्लादित होता है……. व अरूपप्रद कलाओं (साहित्य,संगीतकला) के अंतर्गत नि:सृत रचना का आस्वादन पढ़-सुनकर करता हैं ।वस्तुतः यही सृजन-रचना का अंर्तसंबंध है……..दूसरी और यहीं परस्पर अन्तरभिन्नता भी। प्रस्तुत विरोधाभास में ही;सृजन-रचना का लावण्य सन्निहित है।
कला की भाषा स्वमेव विश्वभाषा को रूपायित करती है
कला-साहित्य के सत्य का- शाश्वतता, सामुदायिकता,सार्वभौमिकता में समाहन है। जो देश,काल व परिस्थितियों की सभी सीमाओं से परे जाकर समष्टि को रससिक्त करता है। व्यष्टि से समष्टि की यह अभिव्यक्तिगत यात्रा …..कला-साहित्य के अथ-इति श्री का परिणाम-पूर्णता का सुमेल हैं। कला की भाषा स्वमेव विश्वभाषा को रूपायित करती है। स्पेन के चित्रकार पिकासो द्वारा सृजित “ग्वेरनिका” व किशनगढ़ शैली में निहालचंद्र द्वारा सृजित लघु चित्र “बणी-ठणी”इसका जीवंत उदाहरण है। इसके इतर साहित्य भी भाषाओं के बंधन से परे,अनुवाद के माध्यम से भौगोलिक सीमाओं से पार पा वैश्विक धरातल पर सरपट सैर करता है। हाल ही में,गीतांजलि श्री कृत हिंदी रचना “रेत समाधि”का अंग्रेजी भाषा मे डेज़ी रॉकवेल कृत अनुवाद इसका जीवंत उदाहरण है। सृजन-रचना के माध्यम से कलाकार “काल को आकार” देता हैं। तबहिं,कृति कालजयी ठहरती है।

सहृदय रसिक को अपने से जोड़ने की क्षमता ही, कृति की सार्थकता है
एक कृति, कलाकार का “स्वांत सुखाय” प्रयास होने के उपरांत भी “लोक हिताय” भाव को स्वतः पोषित करती है। सृजन-रचना स्वान्त सुखाय है या लोक हिताय,यह अधिक विमर्श का विषय है। फिलहाल हम मूल विषय की ओर ही पुनः लौटते हैं। इस से कृति का बीज नितान्त निजी होने पर भी, उसका फल कलागत अभिव्यक्ति के स्तर पर, जन सामान्य के हृदय के सौंदर्य को भी उदघाटित करता है। कृति के भाव से सहृदय रसिक तादात्मय स्थापित कर स्व को कृति के अस्तित्व से जोड़ता है। सहृदय रसिक को अपने से जोड़ने की क्षमता ही, कृति की सार्थकता है।यह सार्थकता पूर्णतः अभिव्यक्ति की मारक क्षमता पर आश्रित है।

अभिव्यक्तिगत सौंदर्यबोध ही संस्कृति को माँजता है
वस्तुतः कला-साहितगत अभिव्यक्ति का सौंदर्यबोध लोकमन को गढ़ता है, अपने पाश से सहृदय रसिक के अंतस्थल को भेदता भी है……और फिर सम्पूर्ण लोक के व्यक्तित्व को बांधता है। एक भाव ही कलाकार के अन्तर्मन रूपी गर्भ में विकसित हो,नाना कला माध्यमों के अंतराल में जन्म लेकर……अभिव्यक्ति की गोद मे पलता है। यह विमर्श निराकार भाव ही कृति के रूप में साकार होता है। कलाकार का यह प्रयास जब सहृदय से साक्षात्कार करता है, तब कलाकार की कृति का अभिव्यक्तिगत सौंदर्यबोध सहृदय की चेतना से मुठभेड़ करता हैं। उस मुठभेड़ के परिणाम स्वरूप जो चैतन्य अभिव्यक्ति की चमत्कृति से सहृदय प्राप्त करता है, उससे सहृदय का अनुभव बोध प्रकाशित होता हैं। इस तरह लोकाचार में सकारात्मकता, सहजता, बोधगम्यता व सुंदरता का संचार होता हैं। जो सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से मानवता को समृद्ध करता हैं। मानव सभ्यता को प्रति पग; अनवरत रूप से……चिर प्राणवान बनाये रखने में यह निर्णायक है। फलत: अभिव्यक्तिगत सौंदर्यबोध ही संस्कृति को माँजता है…………लोक आचार-व्यवहार को परिष्कृत करता हैं।यही सृजन-रचनात्मक भावाभिव्यक्ति की अमरता का विधान है। और यही मानव संस्कृति की चिरंजीविता का आधार है।अस्तु,यही अभिव्यक्ति का सौंदर्यबोध हैं।
(सहायक आचार्य- चित्रकला)
राजकीय कला महाविधालय, कोटा (राजस्थान)
मो. 9816083135
Email: rmesh8672@gmail.com
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