अराजकता के भंवर में बांग्लादेश: कट्टरपंथी ताकतों के मजबूत होने का खतरा

बांग्लादेश में अनेक परियोजनाओं में भारत की भागीदारी है। भारत और बांग्लादेश के बीच कई नदियां साझा हैं जिनको लेकर दोस्ताना रिश्तों वाली सरकार के साथ ही आगे बढ़ा जा सकता है अन्यथा विवादों की झड़ी लगने में देर नहीं लगतीं। हालांकि इसका नुकसान अकेले भारत को नहीं बांग्लादेश को भी होगा। लेकिन कट्टरपंथी ताकतों के मंसूबे कुछ और ही होते हैं। फिलहाल तो भारत के पास देखो और इंतजार करो की नीति अपनाने के अलावा विकल्प बहुत सीमित हैं।

shekh haseena
शेख हसीना। फोटो सोशल मीडिया
भारते के लिए आने वाला समय और भी चुनौती पूर्ण होगा। बांग्लादेश दक्षिण एशिया में भूटान के बाद भारत का सबसे करीबी देशों में एक था। श्रीलंका और नेपाल में चीन का प्रभाव हम साफ देख चुके हैं और मालदीव तो बैठा ही चीन की गोद में है। वह वही करता है जो चीन कहता है। उसको भारत के सुरक्षा हितों की चिंता भी नहीं है। इसलिए बांग्लादेश के कट्टरपंथियों के हाथों में जाने से भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने सुरक्षा हितों की रक्षा की होगी।

-द ओपिनियन डेस्क-

बांग्लादेश अब सैन्य शासन के अधीन होगा या वहां नागरिक सत्ता होगी यह फिलहाल तस्वीर साफ नही है, लेकिन एक बात साफ है कि जो भी सत्ता संभालेगा उसकी लगाम सेना के हाथ ही रहेगी। क्या पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया नई अंतरिम प्रधानमंत्री होंगी या किसी अन्य नेता या व्यक्ति के हाथ में शासन की बागडोर आएगी यह अभी देखना है, पर प्रधानमंत्री शेख हसीना के सत्ता गंवाने से मची उथल पुथल से देश को निकालकर फिर उसे प्रगति की राह पर ले जाना किसी भी नेता के लिए आसान नहीं होगा। क्योंकि सबसे बडा डर कट्टरपंथियों के सत्ता पर काबिज होने या उनके और मजबूत होने का है। भारत के लिए भी सबसे बड़ी चिंता यही है कि यदि बांग्लादेश का हाल भी पाकिस्तान जैसा हो गया तो उसके लिए एक और मोर्चा खुल जाएगा जहां वह निश्चिंत होकर नहीं रह सकेगा। यदि बांग्लादेश की नई सरकार चीन की गोद में जाकर बैठ गई तो यह भारत के सुरक्षा हितों को चोट पहुंचाने में चूकेगी नहीं। चीन की तो कोशिश यही रहती है, वह भारत के आसपास कैसे अपना घेरा मजबूत करे। शेख हसीना ने अपना देश खुद अपनी मर्जी से छोड़ा या सैन्य नेतृत्व ने उसे इसके लिए मजबूर किया यह बात धीरे-धीरे सामने आएगी। कोई भी लोकतांत्रिक नेता सत्ता गंवाने के बाद भी अपना देश छोड़कर नहीं जाना चाहेगा। क्योंकि ऐसे नेता के लिए वापसी की उम्मीद हमेशा रहती है लेकिन एक कट्टरपंथी तंत्र में वापसी का विकल्प सीमित हो जाता है। बांग्लादेश में हिंसा के बीच जिस तरह का माहौल बना हुआ है, उससे साफ लगता है कि कट्टरपंथी खुलकर सक्रिय हैं। वहां लोग शेख हसीना का इस्तीफा ही नहीं चाह रहे थे, उनकी निगाहें कहीं ओर भी टिकी हुई हैं। जिस तरह की खबरें मीडिया में आ रही हैं उससे इस आशंका को बल मिलता है। भीड़ ने बांग्लादेश के महानायक शेख मुजीब उर रहमान की स्मृतियों पर जिस तरह से हमला किया या अल्पसंख्यक हिंदुओं और उनके मंदिरों को निशाना बनाया , वह जमात ए इस्लामी जैसी कट्टरपंथी ताकतों के प्रभावी होने की ओर ही इशारा करता हैं। भारत यह पहले भी देख चुका है कि बेगम खालिदा जिया के शासनकाल में किस तरह से बांग्लादेश में कट्टरपंथी ताकतें मजबूत होने लगी थी।
खालिदा जिया को जेल से रिहा करने के आदेश हो गए हैं। अब देखना यह है कि उनको क्या नई भूमिका मिलती है। लेकिन एक बात साफ है कि कट्टरपंथी तत्व हावी हुए तो वहां रह रहे अल्पसंख्यकों के लिए हालात बहुत मुश्किल हो जाएंगे। बांग्लादेश को एक विकसित राष्ट्र बनाने का शेख हसीना का सपना कट्टरपंथियों की साजिशों में दम तोड़ सकता है। बांग्लादेश अपने जन्म के समय से ही पाकिस्तान की आंख की किरकिरी रहा है। पाकिस्तान शासकों की नजर वहां शेख मुजीब उर रहमान की विरासत को समाप्त करने पर रही है और वर्तमान में जिस तरह के हालात बने हैं, उसमें उसकी लिप्तता से इनकार नहीं किया जा सकता। पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश में अपनी सामरिक व रणनीतिक पैठ को मजबूत कर भारत को चुनौती देने की महत्वाकांक्षा पालता रहता है। इसलिए भारते के लिए आने वाला समय और भी चुनौती पूर्ण होगा। बांग्लादेश दक्षिण एशिया में भूटान के बाद भारत का सबसे करीबी देशों में एक था। श्रीलंका और नेपाल में चीन का प्रभाव हम साफ देख चुके हैं और मालदीव तो बैठा ही चीन की गोद में है। वह वही करता है जो चीन कहता है। उसको भारत के सुरक्षा हितों की चिंता भी नहीं है। इसलिए बांग्लादेश के कट्टरपंथियों के हाथों में जाने से भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने सुरक्षा हितों की रक्षा की होगी।
सवाल और भी बहुत हैं। क्या वहां अब स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव होंगे? क्या सेना ऐसा वातावरण कायम करने में सफल होगी कि लोग अपनी पसंद की पार्टी को भयमुक्त होकर वोट दे सकेंगे। या पाकिस्तान की तरह से मुखौटा लोकतंत्र देश में होगा जिसकी हर रीति नीति सेना तय करेगी। पाकिस्तान में कोई नागरिक सरकार स्वतंत्र फैसला नहीं कर सकती। खासकर विदेश नीति के मोर्चे पर तो वह स्वतंत्र होकर चल ही नहीं सकती। बात चाहे भारत के साथ रिश्तों की हो या अमेरिका के साथ संबंधों की पाकिस्तान की कोई भी नागरिक सरकार अपने बूते पर फैसला नहीं कर सकी। वही हुआ जो सेना चाहती रही है। तो क्या बांग्लादेश भी अब इसी राह पर चलेगा। यह सबसे बड़ा सवाल है।
भारत को पूर्वोत्तर में शांति बनाए रखने में भी एक स्थिर और दोस्ताना बांग्लादेश की जरूरत है। इसके अलावा बांग्लादेश में अनेक परियोजनाओं में भारत की भागीदारी है। भारत और बांग्लादेश के बीच कई नदियां साझा हैं जिनको लेकर दोस्ताना रिश्तों वाली सरकार के साथ ही आगे बढ़ा जा सकता है अन्यथा विवादों की झड़ी लगने में देर नहीं लगतीं। हालांकि इसका नुकसान अकेले भारत को नहीं बांग्लादेश को भी होगा। लेकिन कट्टरपंथी ताकतों के मंसूबे कुछ और ही होते हैं। फिलहाल तो भारत के पास देखो और इंतजार करो की नीति अपनाने के अलावा विकल्प बहुत सीमित हैं।

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