utterkoshmange

डॉ. पीएस विजयराघवन
(लेखक और तमिलनाडु के वरिष्ठ पत्रकार और संपादक)
रामनाड़ जिले के रामनाथपुरम में भगवान शिव का हजारों साल पुराना मंदिर है जहां भक्तों की  भीड़ उमड़ती है। उत्तरकोशमंगै नाम के इस मंदिर के आराध्य भगवान शिव व पार्वती हैं। शिव मंगलनाथर शिवलिंग के रूप में स्थापित हैं। मंदिर की महत्ता यह है कि भगवान शिव ने देवी पार्वती को चारों वेदों के गूढ़ रहस्य से अवगत कराया। पांड्या शासकों के काल के इस मंदिर का प्रशासन हिन्दू धर्म व देवस्थान बोर्ड के अधीन है।

इतिहास और संरचना

इस मंदिर की मौजूदा संरचना के निर्माण का श्रेय पांड्या राजा अच्युतप्पा नायक को जाता है। उनका शासनकाल १५२९-४२ तक रहा था। वे तंजावुर के शासक थे। इस मंदिर के विस्तार में रामनाथपुरम शासकों मुत्तुवीरप्पर और सेतुपति वंशज का भी योगदान रहा। मंदिर में भगवान नटराज की छह फीट की मरगद मूर्ति है। मंदिर को रामनाथपुरम, सेतु माधव तीर्थम और लक्ष्मण तीर्थम के समकक्ष रखा गया है। मंदिर में कई सन्निधियां हैं। इनमें मंगलनाथर, मंगलाम्बीकै और नटराज प्रमुख हैं। यहां दैनिक छह अनुष्ठान होते हैं। साल में इतने ही उत्सवों का आयोजन होता है। मंदिर का अंतिम बार जीर्णोद्धार रामनाथपुरम की रानी ने कराया था। मंदिर का गोपुरम सात मंजिला है। सहस्रलिंगम सभागार में शिवलिंग उकेरे हैं। मुख्य गलियारे की दीवार पर छिपकली निर्मित है जिसके मुंह में एक गेंदनुमा आकृति है। मंदिर में गणेश, मुरुगन, नंदी और नवग्रह विग्रह हैं। नटराज के विग्रह के बारे में कहा जाता है कि हल्का सा कंपन भी इसे क्षतिग्रस्त कर सकता है इसलिए यहां उत्सव के वक्त वाद्ययंत्रों का उपयोग निषिद्ध है।

पौराणिक कथा

हिन्दू पौराणिक कथा के अनुसार एक बार एक हजार ऋषियों ने भगवान शिव की तपस्या की। शिव ने ऋषियों से कहा कि वे मंदोदरी की तपस्या से अतिप्रसन्न है और अग्नि पिण्ड के रूप में उनको दर्शन देंगे। वे रावण के आवास पर एक छोटे बच्चे के रूप में प्रकट हुए। रावण ने उनको हाथ में उठाने की कोशिश की और हाथ जला बैठे। वहीं ऋषियों के समक्ष वे अग्नि तीर्थम में प्रकट हुए। 999 ऋषियों ने अग्निकुण्ड में कूदकर मोक्ष प्राप्त करने की कोशिश की। केवल एक ऋषि ने इसमें छलांग नहीं लगाई और वेदों को बचा लिया। शिव अत्यंत प्रसन्न हुए और सहस्रलिंगम के रूप में उनको दर्शन दिए। माना जाता है कि जो अंतिम ऋषि बचे उन्होंने बाद में शैव संत माणिकवासगर के रूप में जन्म लिया। एक अन्य मान्यता के अनुसार ब्रह्मा और विष्णु में जब श्रेष्ठता को लेकर सवाल उठा तो शिव ने उनको जयोति स्तम्भ के आधार स्थल का पता लगाने को कहा। ब्रह्मा ने हंस का रूप धारण कर आकाश की ओर तथा विष्णु ने वराह रूप में पाताल लोक की तरफ गमन किया। विष्णु ने आधार स्थल नहीं पता लगाने की वजह से हार मान ली। वहीं ब्रह्मा ने झूठ कहा कि वे उनका उद्गम स्थल पता लगा चुके हैं। शिव ने उनका झूठ पकड़ लिया और शाप दिया कि पृथ्वी लोक पर उनका कहीं भी मंदिर नहीं होगा। साथ तालम्पू (एक तरह का पुष्प) जिसकी मदद से ब्रह्मा ने झूठ कहा था को भी शाप दिया कि दैवीय आराधना व मंदिरों में उसका चढ़ावा नहीं होगा। फिर माफी मांगने पर भगवान ने पुष्प के शाप को कम किया इस वजह से केवल यही मंदिर है जहां भगवान शिव को तालम्पू चढ़ता है।

साहित्यिक वर्णन

नौंवीं सदी के तमिल शैव संत माणिकवासगर व नायनार ने भगवान मंगलनाथर और इस मंदिर के बारे में तिरुवासकम में लिखा है। उनके बाद पंद्रहवीं सदी के शैव संत अरुलगिरिनाथर ने मंदिर परिसर में स्थित मुरुगन की महिमा का वर्णन किया। मान्यता के अनुसार इंद्रदेव ने मुरुगन को असुरों के खिलाफ युद्ध में जाते वक्त यहां अपना वाहन ऐरावत भेंट किया था। मंदिर को पुराने तमिल साहित्य में ‘मण्णू मुंदीयो मंगै मुंदीयो्य उक्ति से वर्णित किया है। इस उक्ति का आशय है कि यहां पहले मण्णू यानी रेत पहली आई या मंगै यानी मां पार्वती। इस स्थल का नाम उत्तरकोशमंगै हैं। उत्तर का आशय उपदेश, कोश व मंगै का तात्पर्य रहस्य व पार्वती से है। इससे स्पष्ट है कि यहां भगवान शिव ने पार्वती को वेदों के रहस्य का ज्ञान दिया।

(डॉ. पीएस विजयराघवन की आस्था के बत्तीस देवालय पुस्तक से साभार)

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