
डॉ. पीएस विजयराघवन
(लेखक और तमिलनाडु के वरिष्ठ पत्रकार और संपादक)
तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित रामेश्वरम हिन्दुओं के चार धामों में एक है। यहां स्थापित शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। उत्तर मे काशी की जो मान्यता है वही दक्षिण में रामेश्वरम की है। यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंखाकार टापू है। बहुत पहले यह टापू भारत की मुख्य भूमि के साथ जुड़ा हुआ था परन्तु सागर की लहरों ने इसे मिलाने वाली कड़ी को काट डाला जिससे वह चारों ओर पानी से घिरकर टापू बन गया। यहां भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व सेतु का निर्माण करवाया था जिस पर चढ़कर वानर सेना लंका पहुंची व वहां विजय पाई। बाद में राम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर यह सेतु तोड़ दिया था। आज भी इस 30 मील (48 किमी) लंबे आदि-सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं। यहां के श्रीरामनाथ स्वामी मंदिर का तीसरा गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है। हिन्दू मान्यता के अनुसार रामेश्वरम में पितरों का तर्पण करना जरूरी माना जाता है।
समुद्र में रेल पुल
जिस स्थान पर यह टापु मुख्य भूमि से जुड़ा था, वहां ढाई मील चैड़ी एक खाड़ी है। इस खाड़ी को नावों से पार किया जाता था। बताया जाता है कि बहुत पहले लोग धनुषकोटि से मन्नार द्वीप तक पैदल जाते थे। लेकिन 148 0 ई में एक चक्रवाती तूफान ने इसे तोड़ दिया। लगभग चार सौ वर्ष पहले कृष्णप्पनायकन नाम के राजा ने उस पर पत्थर का विशाल पुल बनवाया। अंग्रेजों के आने के बाद उस पुल की जगह पर रेल का पुल बनाने का विचार हुआ। उस समय तक पुराना पत्थर का पुल लहरों की टक्कर से टूट चुका था। एक जर्मन इंजीनियर की मदद से उस टूटे पुल का रेल का एक सुंदर पुल बनवाया गया। इस समय यही पुल रामेश्वरम को भारत से रेल सेवा द्वारा जोड़ता है। यह पुल पहले बीच में से जहाजों के निकलने के लिए खुला करता था। उथले सागर एवं संकरे जलडमरूमध्य के कारण समुद्र में लहरे बहुत कम होती है। शांत बहाव को देखकर यात्रियों को ऐसा लगता है मानो वह किसी बड़ी नदी को पार कर रहे हों।
आठवीं सदी से पुराना मंदिर
रामेश्वरम और सेतु बहुत प्राचीन है। परंतु रामनाथ का मंदिर उतना पुराना नहीं है। दक्षिण के कुछ और मंदिर डेढ़ दो हजार साल पहले के बने हंै जबकि रामनाथ स्वामी मंदिर को बने आठ सौ वर्ष से भी कम हुए है। रामेश्वरम मंदिर का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है। यह उत्तर-दक्षिण में 197 मीटर एवं पूर्व-पश्चिम 133 मीटर है। इसके परकोटे की चैड़ाई 6 मीटर व ऊंचाई 9 मीटर है। मंदिर के प्रवेशद्वार का गोपुरम 38 .4 मीटर ऊंचा है। यह मंदिर लगभग 6 हेक्टेयर में बना हुआ है। मंदिर में विशालाक्षी जी के गर्भ-गृह के निकट ही नौ ज्योतिर्लिंग हैं, जो लंकापति विभीषण द्वारा स्थापित बताए जाते हैं। रामनाथ के मंदिर में जो ताम्रपट है उनसे पता चलता है कि 1173 ईस्वी में श्रीलंका के राजा पराक्रम बाहु ने मूल लिंग वाले गर्भगृह का निर्माण करवाया था। उस मंदिर में अकेले शिवलिंग की स्थापना की गई थी। देवी का विग्रह नहीं रखा था। इस कारण वह निरूसंगेश्वर का मंदिर कहलाया। फिर कालांतर में इसका विस्तार होता चला गया।
स्थापत्य व शिल्पकला
रामेश्वरम् का मंदिर भारतीय निर्माण और शिल्पकला का एक सुंदर नमूना है। गलियारे और मंदिर के अंदर सैकड़ों विशाल खंभें हैं जो एक-जैसे लगते हैं लेकिन बारीकी से देखा जाय तो हर खंभे पर बेल.बूटे की अलग.अलग कारीगरी है। इन खंभों की अद्भुत कारीगरी देखकर विदेशी भी दंग रह जाते है। रामनाथ के मंदिर के चारों और दूर तक कोई पहाड़ नहीं है, जहां से पत्थर आसानी से लाये जा सकें। गंधमादन पर्वत तो नाममात्र का है। यह वास्तव में एक टीला है और उसमें से एक विशाल मंदिर के निर्माण के लिए जरूरी पत्थर नहीं निकल सकते। रामेश्वरम् के मंदिर के निर्माण में प्रयुक्त कई लाख टन पत्थर दूर-दूर से नावों में लादकर लाये गये हंै। रामनाथ जी के मंदिर के भीतरी भाग में एक चिकना काला पत्थर लगा है। कहते है, ये सभी पत्थर लंका से लाये गये थे। रामनाथपुरम् के राजभवन में एक पुराना काला पत्थर रखा है। कहा जाता है यह पत्थर राम ने केवटराज को राजतिलक के समय उसके चिह्न के रूप में दिया था। रामेश्वरम् की यात्रा करने वाले लोग इस काले पत्थर को देखने के लिए रामनाथपुरम जाते है जो लगभग तैंतीस मील दूर है।
ब्रह्म दोष से मुक्ति
रामेश्वरम् के विख्यात मंदिर की स्थापना की रोचक कहानी है। सीताजी को छुड़ाने के लिए राम ने लंका पर चढ़ाई की और युद्ध में रावण और उसके सभी साथी राक्षसों को मारा। अन्ततः सीताजी के साथ श्रीराम वापस लौटे। इस युद्ध के लिए राम को वानर सेना सहित सागर पार करना था, जो अत्यधिक कठिन कार्य था। रावण भी असाधारण राक्षस था। वह पुलस्त्य महर्षि का नाती था। चारों वेदों का ज्ञाता और शिवजी का परम भक्त था। इस कारण राम पर ब्रह्म-हत्या का पाप लगा। इस पाप को धोने के लिए उन्होने रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना करने का निश्चय किया। यह निश्चय करने के बाद श्रीराम ने हनुमान को काशी से शिवलिंग लाने की आज्ञा दीे। हनुमान बड़े वेग से आकाश मार्ग से चल पड़े। लेकिन शिवलिंग की स्थापना की नियत घड़ी पास आ गई। हनुमान का कहीं पता न था। जब सीताजी ने देखा कि हनुमान के लौटने मे देर हो रही है तो उन्होंने समुद्र के किनारे की रेत को मुट्ठी में बांधकर शिवलिंग बना दिया। श्री राम ने नियत समय पर इसी शिवलिंग की स्थापना कर दी। छोटे आकार का यही शिवलिंग रामनाथ कहलाता है। बाद में हनुमान के आने पर पहले प्रतिष्ठित छोटे शिवलिंग के पास ही राम ने काले पत्थर के उस बड़े शिवलिंग को स्थापित कर दिया। ये दोनों शिवलिंग इस तीर्थ के मुख्य मंदिर में आज भी पूजित हैं। यही मुख्य शिवलिंग ज्योतिर्लिंग है। किन्वदंती है कि मंदिर में २२ तीर्थ हैं जिनमें स्नान करना मोक्ष प्राप्ति का साधन माना जाता है। हर कुण्ड का अपना नाम है और पानी का रंग और मिजाज अलग-अलग है।
सेतु का पौराणिक संदर्भ
पूरे भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के कई देशों में हर साल दशहरे पर और राम के जीवन पर आधारित सभी तरह के नृत्य.नाटकों में सेतु बंधन का वर्णन किया जाता है। राम के बनाए इस पुल का वर्णन रामायण में तो है ही, महाभारत में भी श्री राम के नल सेतु का जिक्र आया है। कालीदास की रघुवंश और अनेक पुराणों में भी श्रीरामसेतु का विवरण आता है। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में इसे एडम्स ब्रिज के साथ-साथ राम सेतु कहा गया है। नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए चित्रों में धनुषकोटि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है। इसी पुल को बाद में एडम्स ब्रिज का नाम मिला। यह सेतु तब पांच दिनों में ही बन गया था। इसकी लंबाई 100 योजन व चैड़ाई 10 योजन थी। यूपीए सरकार के दौरान इस ब्रिज के एक हिस्से को नष्ट करते हुए सेतुसमुद्रम नहर विकसित करने की योजना थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने धार्मिक संवेदनाओं को ठेस पहुंचाना माना और रोक लगा दी। यह लगभग 2500 करोड़ रुपए की योजना थी जिसका वैकल्पिक मार्ग मौजूदा केंद्र सरकार तलाश रही है लेकिन उसे सफलता नहीं मिली है।
(डॉ. पीएस विजयराघवन की आस्था के बत्तीस देवालय पुस्तक से साभार)
तमिलनाडु आध्यात्मिक संस्कारों की भूमि है, जिसका प्रतीक यहां के अति प्राचीन मंदिर हैं। प्रत्येक मंदिर अपने आप में मूर्त इतिहास है। यह शिल्प के अद्भुत उदाहरण हैं। मंदिरों की विरासत का राज्य के पर्यटन में भी अमूल्य योगदान है। लेखकर डॉ. पीएस विजयराघवन ने अपनी इस संकलित पुस्तक में मंदिरों पर आमजन की आस्था और उसकी महत्ता पर प्रकाश डाला है। सं.