
मौल्यार
-प्रतिभा नैथानी-

घास पात के लिए काटी गई हों या फिर पतझड़ का दंश झेल रही हों, सर्द मौसम से जीर्ण डालियों पर नए फूल-पत्ते आने का मौसम है ‘बसंत’। हमारी बोली में इसे मौल्यार कहते हैं। ‘मौल्यार’ अर्थात घाव भरने वाली।
प्रकृति का श्रृंगार करने आई इस ऋतु के स्पर्श में संजीवनी है। बर्फीली हवा की छुअन से रुखे पड़ गए कपोलों पर फिर स्निग्ध लालिमा आने लगती है। फटे होंठ भी नरम पड़ अपने-आप ठीक होने लगते हैं । चहुंओर खिले सरसों और फ्योंली के फूलों का रंग आंखों पर बासंती डोरे डाल देता है। रंग-बिरंगे मौसम की खुमारी से बोझिल पलकों पर नींद सरसराने लगे तो फिर किसी हाल टूटने का नाम नहीं। मगर यह नींद नहीं , भांग खाए आदमी की सी हालत वाले सपनों
का सुख है।
कभी लगता है कोई गीत बज रहा है ‘माघपंचमी बिटीन,गीतूं मा दिन कटीन’ । कहीं दूर से ढोल की भी आवाज़ आती प्रतीत होती है। लगता है जैसे मैं अपने गांव में हूं और माघ पंचमी से वैशाखी तक हर रात चलने वाले नृत्य-गीत आयोजन में बैठी हुई हूं।
फिर किसी जानी-पहचानी चिड़िया की आवाज़ का शोर सुनकर सपना एकदम वर्तमान में आ जाता है ।
हां! शरद में लंबे प्रवास पर गए पंछी भी तो लौट आते हैं ना इस ऋतु में। एक तरफ जहां आम के पेड़ पर बौर आने की जांच-परख में जुटी तोतों की हरी पंक्तियां हैं तो वहीं नन्ही गौरेयां के दल का धूसर रंग आंगन में धमाल मचा रहा है। मुंडेर पर गुटर – गूं करते स्लेटी रंग के कबूतरों की संख्या भी बढ़ गई लगती है।
नए मौसम की भोर में जगाने के लिए इन पंछियों की बातों का यह सुमधुर संगीत अलार्म का काम करता है इन दिनों। बसंत पंचमी के दिन नाक छिदवाने के साथ ही गेहूं और जौ की सुकुमार पत्तियों पर गिरी ओस की बूंदे इकट्ठा कर हर सुबह दुखती नाक पर टपकाने की याद ताज़ा कर देती हैं यह सुबहें । जिन्होंने कुछ दिन का भी नियम कर लिया तो उनकी नाक का दर्द सचमुच जाता रहता और कोई संक्रमण भी न होता था। असर मौल्यार का !
ठंड के डर से कोंपलों में छुपे आड़ू के गुलाबी पुष्पों का बाहर निकलना, निष्प्रयोज्य झाड़ियों के सूखे डंठलों पर कलियों सा कोमल कुछ उभरना ही मौल्यार है। इसे जितना जी लिया जाए उतना कम लगता है। सच है कि यह दिन ज्यादा लंबे नहीं टिकते, लेकिन सर्दी,गर्मी और बरसात जैसे मौसमों की भीषण एकरस कल्पना से ही इंतज़ार शुरू हो जाता है एक मौल्यार से दूसरी मौल्यार का।

















