
-मनु वाशिष्ठ-

यह उन दिनों की बात है जब हम छोटे थे और पिताजी के साथ नौकरी पर हमें साथ भेजने में दादाजी का मानस नहीं बन पा रहा था, सो दादाजी ने गांव के स्कूल में दाखिला करा दिया। आज नर्सरी के बच्चों पर भी बस्ते का जो बोझ लदा है, उसे देख दया आती है। अपना समय याद आता है, जब एकमात्र स्लेट या तख्ती होती थी, साथ में शुरुआत में सफेद खड़िया, बाद में कलम दवात। उस तख्ती को मुल्तानी मिट्टी से पोता जाता, फिर सुखाने के लिए उस लकड़ी की तख्ती या स्लेट को जोर जोर से हिलाते जाते और गाते जाते, ऊपर से यह समझते कि शायद हमारे गाने से ही तख्ती या स्लेट सूख रही है।
सूख सूख पट्टी, चंदन गट्टी,
राजा आया, महल चिनाया,
झंडा गाड़ा, बजा नगाड़ा,
रानी गई रूठ, पट्टी गई सूख,
और फिर अपनी कांच की शीशी से रगड़ रगड़ कर तख्ती को चमकाया जाता था। उस शीशी में होता था, भीगी हुई झक सफेद खड़िया का घोल। कई बार थोड़ी नील भी मिला देते। फिर एक मोटा धागा लेकर उस गीली खड़िया में भिगो कर लाइन खींची जाती। फिर उस पर लिखे जाते अ से अनार, गिनती और बारहखड़ी। जिसके पास स्लेट होती वो अपने को स्मार्ट समझता। उस समय एक उद्योग का पीरियड भी होता था, जिसमें बच्चे मिट्टी, कागज आदि से कुछ बनाने के लिए अपनी कल्पना शक्ति का प्रयोग करते थे। आजकल तो नर्सरी क्लास से ही बेचारी मम्मियां जुटी रहती हैं तरह तरह के प्रोजेक्ट बनाने में। जिनमें बच्चों का कम, पैरंट्स का योगदान ज्यादा रहता है।
एक और मजेदार बात याद आ रही है, थोड़े बड़े हुए, शायद चौथी पांचवी कक्षा में होंगे, तो क्लास में पढ़ाया गया कि जब अग्नि का आविष्कार नहीं हुआ था तब किस तरह आदि मानव ने पत्थर रगड़ कर आग जलाना सीखा। हम भाई बहन भी सफेद चकमक पत्थर ढूंढ कर लाए, रगड़ कर आग जलाने की खूब कोशिश की, उसमें चमक तो दिखती लेकिन आग नहीं जली तो नहीं जली। आज भी अपनी बेवकूफी कहें या बचपना हंसी आ जाती है।
__ मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान
बचपन में मैं भी गांव की पाठशाला में पढ़ता था,सुबह मां हाथ मुंह धोकर,साफ धुले कपड़े, बगैर प्रेस किये, पहना कर , स्कूल भेजती थी, बस्ते के नाम पर तख्ती कुछ खड़िया होती थी लिखने के लिए
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