
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

तू मेरे नाम को दुनिया में मुश्तहर* कर दे।
हयात चाहे मेरी और मुख़्तसर* कर दे।।
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जिसे भी चाहे तू देना सिकंदरी* देदे।
जिसे भी चाहे ज़माने में दर- ब – दर करदे।।
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अब और भूख से ग़ुरबत से लड़ नहीं सकते।
ये मार्का* भी बहुत सख़्त है तू सर करदे।।
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बनाके ताज महल जिनके हाथ कटते हों।
तू ऐसे हाथों को पहले से बे हुनर करदे।।
”
यही हो मसलेहते* फ़िक्रे शायरी “अनवर’।
क़लम से शेर वो निकले जो ऑंख तर करदे।।
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मुशतहर* प्रचारित
मुख़्तसर* संक्षिप्त
सिकन्दरी* बादशाहत वैभव
मार्का* युद्ध
मसलेहते फ़िक्रे* ख़ूबी, पॉलिसी
शकूर अनवर
शायर शकूर अनवर ने ग़ज़ल की चार पंक्तियों में जिंदगी की सच्चाई बयां कर दी है