
-मधु मधुमन-
इस क़दर ज़िंदगी में हैं उलझे हुए
मुद्दतें हो गईं ख़ुद को देखे हुए
अड़ गए वो कभी तो कभी हम ख़फ़ा
कट गया वक़्त लड़ते झगड़ते हुए
उम्र सारी हमारी तो गुज़री यूँ ही
ज़िंदगी नाज़ तेरे उठाते हुए
बारहा उलझे-उलझे से होते हैं वो
लोग दिखते हैं जो सबको सुलझे हुए
मौत से कोई शिकवा नहीं है हमें
हम तो हैं ज़िंदगी के सताए हुए
दर्द जितना मिला ज़िंदगी से मुझे
उतने ही पुरअसर शे’र मेरे हुए
देखने को तो देखे हैं सबने मगर
ख़्वाब ‘मधुमन ‘कहाँ सबके पूरे हुए
मधु मधुमन
(कवयित्री, शायरा)
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