-डॉ अनिता वर्मा-

आँखों में बसे हुए
सपनों की झिलमिलाहट लिये
खड़े हैं कतारबद्ध ये श्रमजीवी
तालाब की पाल और स्टेशन रोड़ जाती
मुख्य सड़क के बीच
कुछ युवा कुछ वृद्ध, कुछ अधेड़
आशान्वित होकर
पेट खातिर,
छाँट दिये जाते हैं,
युवा, वृद्ध व अधेड़
आवश्यकतानुसार
चेहरे की झुरियाँ
गहरा जाती हैं
बचे वृद्ध श्रमजीवियों की
टूट जाता है उम्मीदों का बांध
भरभराकर एक क्षण में
मॉर्निंग वॉक से लौटते
लोगों के लिये
कौतूहल का विषय बन जाते हैं
झुण्ड में एकत्र ये श्रमजीवी
कुछ शान्त, कुछ उद्विग्न
बीड़ी के धुंए के छल्ले
उड़ाते आ खड़े हुए है
भीड़ में
मजूरी की आस लिये
(मजदूर दिवस पर कविता मेरी पुस्तक बोलती आँखों से। डॉ अनिता वर्मा)