
स्त्री
-माला सिन्हा-

तुम कौन हो
टुकड़े टुकड़े में बंटा हुआ
तुम्हारा अस्तित्व
अलग अलग रिश्तों के
सांचे में ढलती तुम
कैसे बांधा जाए तुम्हें
शब्दों की परिधि में
मां, बहन,बेटी,पत्नी, प्रिया
या सखी कह कर,
यह व्याख्या संकुचित होगी
तुम्हारे लिए
क्योंकि तुम
आदि सृष्टि की अनुपम कृति हो
अतुलनीय
तुम मनु की इला थी
शिव की सती
श्री राम की सीता भी
कृष्ण की राधा
सिद्धार्थ की यशोधरा भी
हरिश्चंद्र की शैव्या हो
पुरुरवा की उर्वशी भी
बिठ्ठूर की मणिकर्णिका
भारत की इंदिरा भी
हां, शब्दों की व्याख्या से परे है
तुम्हारी परिभाषा
क्योंकि इतिहास का
हर रूप जीया है तुमने
तुम्हारी दुनियां की बुनियाद
तुम्हीं से है
फिर यह अवमूल्यन क्यों तुम्हारा
कैसी यह अवमानना
दुष्यंत की तुम शकुंतला
कवि रसखान की काव्य कला
ख़ुसरो की इश्कमिज़ाज़ी भी
ख़य्याम की रुबाई भी
ग़ालिब की तुम हो खोई ग़ज़ल
दूर कहीं किसी मंदिर में
घंटियों की गूंजती आवाज सी,
या सांझ ढले उसमें
जलते पवित्र दीये की
मद्धम लौ सी दीप्तिमान
बांसुरी की मधुर सुरीली तान,
तुम प्रकृति हो
दुर्भाग्य ने तुम्हें
द्रौपदी के रूप में
भरी सभा में दावं पर लगाया
और हैवानों ने
काली ठिठुरती रातों में
कभी तुम्हें निर्भया
तो कभी आसिफा बनाया
आहत किया
तुम्हारे आत्मसम्मान को,
अपनी व्यथा भूल
तोड़ कर तमाम बंदिशें
उस राह पर तुम्हारे कदम बढ़ें
जहां
हर दिन का हर एक पल
तुम्हारे लिए, तुम्हारे नाम हो
तुम्हें अपने हिस्से की धूप मिले
तुम्हारी मुठ्ठी में
थोड़ी रोशनी, ताजी हवा की छांव हो
आंखो में पलते सपनों को
आकार मिले
सच की जमीं
इंद्रधनुषी आसमान मिले
जरा सी मुस्कुराहटें
थोड़ी पहचान मिले
दुनियां की नजरों में
बेटियों के जन्म का
सुखद इंतजार मिले
और तुम्हें गर्व हो कि
तुम एक स्त्री हो !
माला सिन्हा