
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

प्रेम के गहरे ताल में गुम हूॅं।।
ऑंखों के भोपाल में गुम हूॅं।
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सय्यारों* की चाल में गुम हूॅं।
क़िस्मत के जंजाल में गुम हूॅं।।
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गहराई का अंदाज़ा कर।
मैं दिल के पाताल में गुम हूॅं।।
आवाज़ों के शहर में रहकर।
सन्नाटों के जाल में गुम हूॅं।।
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रात ग़ज़ब का सपना देखा।
चाॅंदी की टकसाल में गुम हूॅं।।
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तुम किस उलझन में खोये हो।
मैं तो आटे दाल में गुम हूॅं।।
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हर कोई इतिहास बनेगा।
मैं भी माहो साल* में गुम हूॅं।।
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आप तो अपनी मात बचाओ।
देखो मैं इक चाल में गुम हूॅं।।
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दुनिया जो भी समझे “अनवर”।
मैं तो अपने हाल में गुम हूॅं।।
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सय्यारों*ग्रहों
माहो साल*महीने और वर्ष
शकूर अनवर
9460851271
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