भूली बिसरी यादें: मैं संतोष का डैडी…

शायद यही होते हैं आत्मीय रिश्ते !

-अजय पाल सिंह यादव-
राजस्थान पत्रिका छोड़ने के बाद वर्ष 2002 जुलाई अगस्त में मै जयपुर सचिवालय जाने लगा था। मेरा वहां काम था बीस सूत्री समन्वयन व कार्यान्वयन सीमित के कार्यालय में आने वालों की अगवानी, जनसंपर्क, खिलाना- पिलाना, ट्रांसफर पोस्टिंग की अर्जी सहित अन्य पोलिटिकल वर्क्स आदि। ये कार्यालय असल में मामाजी को समिति का उपाध्यक्ष पद ( कैबिनेट मंत्री दर्जा) पर नियुक्ति होने पर आवंटित हुआ था। भरा पूरा स्टाफ़ था। उष्शपति त्रिपाठी जी, मनोहर शर्मा जी, चंदन यादव, ऋषि दीक्षित, पन्ना लाल शर्मा जी, मनोहर बैरवा, लाल चंद जी, दुर्गा जी, बहादुर सिंह, अभय सिंह, रिछपाल चौधरी, मदन मीणा, राम निवास सैनी, नित्यानंद, प्रहलाद मीणा, एक दो लोगों के नाम फिलहाल याद नहीं आ रहे। इन सबके अलावा साढे चार फीट की ऊंचाई से भी कम एक शख्स और था। नाम था “संतोष”!
“संतोष” कार्यालय परिचर था। दुबला सा साँवली काया। उस वक्त शायद वह 30-35 साल का रहा होगा। बेहद अनुशासित व शरीफ़ सा बंदा। मैं अक्सर देखता सबका जोर उसी पर चलता था।
एक दिन मैंने उसे बुलाया उसके परिवार के बारे में पूछा। उसने बताया तो पता चला उसकी पारिवारिक आर्थिक स्थिति काफी कमजोर थी। वो अकेला भरा- पूरा परिवार संभाल रहा था।
तभी हमारे यहाँ काम करने वाले लालचंद जी पहुँच गए। उन्होंने भी उसकी बताई बातों की पुष्टि की।
ये सब सुन कर मैंने संतोष को गले लगा लिया और बोला अब तुम पर कोई रौब झाड़े या जोर चलाए तो मुझे बताना।
लाल चंद जी मजाक में बोल उठे ” समझ लिजो थारा पापा है”
संतोष हंसा और बोला सर एक बात कहूँ? मैंने कहा बोलो। मैं आपको आज से “डैडी” बोल सकता हूँ। मैं हंसा और बोला तुम तो मुझसे बहुत बड़े हो। बोला नहीं आपको “डैडी” ही बोलूंगा। (मुझे अरूण गवली याद आ गया था जो डैडी नाम से फैमस है) मैं डॉन तो नहीं था पर मैं मान गया।
अब संतोष काफी विश्वास से भरा लगने लगा। उसे स्टाफ वाले जानबूझकर तंग करते तो वो धमकी देता “डैडी” को बोल दूंगा।
खैर वक्त बीता। गहलोत सरकार चली गई। सब अलग-थलग पड़ गये। अधिकतर लोग तब से अब तक संपर्क में हैं। कुछ रिटायर हो गए। “संतोष” का इतने सालों में मुझे कोई अता- पता नहीं लगा।
पिछले साल मैंने जयपुर दुर्गा को किसी काम के लिए फोन किया। सबके बारे में पूछा, संतोष के बारे में भी।
दुर्गा बोले मिलता है कराता हूँ बात एक दिन।
दो दिन बाद दुर्गा का फोन आया। लो “भाई साहब थारै बेटा सू बात करो”
“लै रे तेरे डैडी से बात कर”
यह बोलते हुए संतोष को फोन दिया।
” डैडी नमस्ते, डैडी मुझे आपकी बहुत याद आती है… संतोष की इतने साल बाद आवाज़ सुनकर मेरी आँखे भर आई।
एक दो मिनट बात हुई।
मैं सोचता रहा क्या बदला, समय के अलावा?
ना ही संतोष ना मैं! उसने वादा किया कि वो मेरा नंबर लेकर अब बात किया करेगा।
शायद यही होते हैं आत्मीय रिश्ते!

(लेखक पूर्व पत्रकार हैं )

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