
-बृजेश विजयवर्गीय-

रामगढ़ विषधारी बाघ संरक्षित वन से जुड़ा चामुंडा माता जी का मंदिर बूंदी तारागढ़ दुर्ग के पास स्थित है। यहां कभी घना जंगल होता था। इसके पास में ही दोबड़ा महादेव जी का प्रसिद्ध मंदिर भी है। मैं बचपन से माता जी के दर्शन कर रहा हूं, रास्ते का रोमांच अब भी कायम है। लेकिन मेरे देखते-देखते मानवीय दखल ने इस पहाड़ को नंगा कर दिया।
धार्मिक व आध्यात्मिक महत्व अपने स्थान पर है लेकिन जंगल, पहाड़ों को बचाने में इन देव स्थानों का बड़ा महत्व है। इतनी नैतिकता वनवासी समाज और वनों को नुक़सान पहुंचाने वाले लोग रखते हैं, धार्मिक डर के कारण वन किसी तरह बचे हुए हैं।

वैसे भी हमारे सभी देवी-देवता प्रकृति के संरक्षण और पोषण का संदेश ही देते हैं। नवरात्रि पर्व देवी आराधना का पर्व है। देवी के सभी रुप सिंह वाहिनी, शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंद माता, मां कात्यानी, काल रात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री सभी की सवारी वन्यजीव, पशु -पक्षी हैं। यही दृश्य देवताओं का भी है। यानी धर्म में ही पर्यावरण का संदेश स्पष्ट है। शेर-बाघ हाथी, मगरमच्छ, सर्प ,गाय, भैंसा ,नंदी, श्वान, मोर, हंस सभी का देवी देवताओं से संबंध दर्शाया गया है। संयोग से वन्यजीव संरक्षण सप्ताह भी इन्हीं दिनों आता है 1 से8 अक्टूबर तक।
कोटा समेत हाड़ौती में इंद्रगढ, रामगढ़ विषधारी बूंदी, रामगढ़ बारां ,नाहरसिगी, डाढदेवी, कुन्हाड़ी, नीली माता जी आदि प्रसिद्ध मंदिर अधिकांश जंगलों व पहाड़ों पर मिलते हैं।

वन,जल प्रबंधन का आध्यात्मिक ज्ञान स्वार्थवश सिर्फ अंध आस्था तक सिमट गया लगता है। संभवतः इसीलिए कथित लोकतांत्रिक सत्ता और समाज प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर संवेदनहीन बने हुए हैं। देश में कहीं अरावली बचाओ का आंदोलन चल रहा तो कहीं नदियां बचाओ, जल जंगल और गोडावण बचाओ की आवाजें गूंज रही है। वन और वन्य जीव लोक तंत्र में वोटिंग अधिकार नहीं रखते। शायद इसीलिए इस प्रकार की आवाज को अनसुना किया जाता है।
(चम्बल संसद के समन्वयक और पर्यावरण कार्यकर्ता)
सनातन धर्मावलंबियों को देवी देवताओं और उनके वाहनों की पूजा भले ही आत्म शुद्धि देती हो लेकिन इनके वाहनों के शरण स्थलों का दोहन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेखक ने सही कहा है कि नवरात्र में नौ दुर्गाओं के वाहन जंगली पशु है, इनकी पूजा आराधना की जाती है, गीत भजन गाए जाते हैं लेकिन इनके शरण स्थल जंगलों, पहाड़ों,नदी नालों को बर्बाद करने मे हम देवी भक्त अग्रणी रहे है। हमारी सनातन संस्कृति जियो और जीने दो की अवधारणा की पोषक है। अभी समय है कि हम प्रकृति की बेशकीमती नियामत को संरक्षण, संवर्धन करें और देवालयों के विकास के साथ पेड़ पौधों को विकसित करें।