
-राजेश खंडेलवाल-
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)
भरतपुर। मेरी माटी का कण-कण शौर्य, वीरता और पराक्रम से सराबोर है तो इसकी सौंधी महक सबको भाती है। कभी मुगल सल्तनत तो कभी अंग्रेजी हुकूमत के हमले झेले पर ना कोई मुझे भेद सका और ना ही पराजित कर पाया। इसी खूबी से मुझे आयरन फोर्ट यानी लोहागढ़ का नाम मिला। मेरा उद्भव अदम्य साहस का परिचायक है। 1733 ई. में मेरे जनक महाराजा सूरजमल ने खेमकरण सोगरिया पर आक्रमण कर फतेहगढ़ी को जीता और 1743 ई. में बसंत पंचमी के दिन मेरी यानि लोहागढ़ दुर्ग (भरतपुर) की नींव रखी, जिसमें कभी कोई सेंध नहीं लगा सका। शूरवीरता से ओतप्रोत ही नहीं, मैं अभेद और अजेय भी हूं, जिस पर मुझे आज भी गर्वानुभूति होती है। योगेश्वर श्रीकृष्ण वंशज और मेरे अपनों की वीरता की प्रसिद्धि बयां करने को आठ फिरंगी, नौ गोरा, लड़े जाट के दो छोरा वाली कहावत ही पर्याप्त है, जिसे आज भी बखूबी कहा-सुना जाता है।
मेरा स्वरूप अद्वितीय
मेरी बनावट विलक्षण ही नहीं, जगह भी ऐसी चुनी, जहां दूर-पास से पानी सिमटकर कटोरे की शक्ल अख्तियार कर लेता तो दूर ही नहीं, पास से भी कोई मुझे नहीं देख पाता, जो मेरे अजेय रहने का प्रमुख आधार बना। रूपारेल और वाणगंगा नदी के संगम पर अनोखा और सुदृढ़ सिर्फ मैं ही हूं। देश ही नहीं, दुनियाभर में मेरा स्वरूप अद्वितीय रहा तभी तो सतत एक ही पचरंगी पताका फहराने का गौरव पाया। भेद पाना तो दूर मुझ तक पहुंचना भी नामुमकिन रहा। मेरी सुरक्षा के बेमिसाल प्रयोग से गोरी (अंग्रेज) सेना को चारों खाने चित्त होना पड़ा। उन्नत विशाल और सुदृढ़ बुर्ज व प्राचीरें तथा आन-बान-शान को मर मिटने वाले मेरे अपनों (योद्धाओं) की शूरवीरता ने इतना अभेद व अजेय बना दिया कि मेरी ओर जब किसी ने कुदृष्टि डालने की चेष्टा की तब ही उन्हें मुंह की खानी पड़ी, पर अब जर्जर दीवारें, मैली सुजानगंगा, पट चुकी खाईयां ही नहीं, मटियामेट हो चुका कच्चा डंडा (परकोटा) भी मेरी उपेक्षा, अनदेखी और बदहाली को बयां कर रहा है, जो मुझे तो खलता है पर शायद जिम्मेदारों को इसका मलाल नहीं। यह कहना अतिरंजित नहीं होगा कि मुझे अपनों ने मारा, गैरों में कहां दम था?
मेरे जनक ने 80 युद्ध लड़े
मेरे जनक ने जीवनकाल में मुगल, अंग्रेज, मराठा, राजपूत और होलकरों से 80 युद्ध लड़े और सब पर फतेह पाई। वे एकमात्र ऐसे शासक रहे, जिन्होंने दिल्ली पर ना केवल कई बार हमला किया, बल्कि दिल्ली का भविष्य भी कई बार अपनी मुटï्ठी में कैद रखा। मैंने वह वक्त भी जीया, जब हिंदुस्तान में मुगलों का डंका बजता। तब उनकी भारी-भरकम सेना के आगे तमाम राजा-रजवाड़े नतमस्तक रहे पर उस दौर में भी एक मात्र ऐसे राजा मेरे जनक महाराजा सूरजमल रहे, जो मुगलों के सामने बिना डरे अड़े ही नहीं, बल्कि सिर उठाकर डटे भी रहे। मैं ही नहीं, देश-दुनिया भी उनकी मुरीद रही। उनकी वीरता के किस्से आज भी प्रेरणास्पद हैं।
मुझे और मेरे अपनों को कभी कोई राजा जीत नहीं सका
मेरा नामकरण भी रोचकता से भरा रहा है। मेरे जनक ने दिल्ली से महज 2 घंटे और आगरा से सिर्फ 1 घंटे की दूरी पर ना केवल मेरा साम्राज्य कायम रखा, बल्कि मैं ऐसा किला बना, जिस पर न कभी मुगल सल्तनत तो न ही कभी अंग्रेज अपना झंडा फहरा पाए। मुझे और मेरे अपनों को कभी कोई राजा जीत नहीं सका। मुगलों, मराठों ने कई बार हमला किया, लेकिन हर बार पराजित रहे। वर्ष 1805 में ब्रिटिश सेनापति लार्ड लेक की अगुवाई में अंग्रेजी सेना ने चार बार हमला किया, लेकिन हर बार विफल रही। तब ब्रिटिश सेनापति लार्ड लेक ने ही मुझे आयरन फोर्ट यानी लोहागढ़ दुर्ग (लोहागढ़ किला) नाम दिया।
देश-धर्म और मानवीय मूल्यों के गौरव की रक्षा के लिए स्थापना
मेरी स्थापना देश-धर्म और मानवीय मूल्यों के गौरव की रक्षा के लिए हुई, जिसका इतिहास स्वाभिमान, शौर्य, साहस, पराक्रम व धार्मिक सहिष्णुता का जीवंत दिग्दर्शन है। संकीर्ण विचारों का धर्मान्ध मुगल शासक औरंगजेब जब हिन्दू धर्म को नष्ट करने के उद्देश्य से मेरे अपनों पर घोर अमानवीय अत्याचार कर रहा था, तब धर्म की रक्षा और बहन-बेटियों की अस्मत बचाने की खातिर वीर सपूतों ने अपने रक्त से मुझे सींचा। मेरे रणबांकुरों ने अत्याचार के विरुद्ध सुदीर्घ और निर्णायक संघर्ष किया, जो कभी पद और अंलकरण के भूखे नहीं रहे। अत्याचार-अनाचार व दमन की जमकर खिलाफत ही नहीं की, बल्कि त्याग, बलिदान और समर्पण भी खूब किया।
वास्तु एवं स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना
वास्तु एवं स्थापत्य कला का मैं ऐसा बेजोड़ नमूना हूं, जो अतुलनीय है। चित्रकारी मनमोहक तो मेरा नैसर्गिंक सौन्दर्य दर्शनीय है। ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत का धनी ही नहीं, उत्कृष्टता का द्योतक भी हूं।
जन कल्याण और परोपकार मेरे अपनों की उदारता रही तो उनके वैभव और समृद्धता की याद आज भी मेरे जहन में है। किले, महल, मंदिर, सरोवर, बाग-बगीचे अनूठे हैं, जो हर किसी को लुभाते ही नहीं, बल्कि नई पीढ़ी भी उनके बारे में जानने और समझने को आतुर नजर आती है।
संस्कार ही नहीं, संस्कृति की ऐसी मिसाल
इतना ही नहीं, मेरी धरोहरें, शिलालेख, प्राचीन सिक्के, लौह स्तंभ व अन्य ऐतिहासिक, पुरातात्विक अवशेष आकर्षक का केन्द्र हैं तो नैसर्गिंक प्रेम को परिलक्षित करते हुए मैं उन्नत साहित्य व कलाओं के साथ उत्पादन, व्यापार व वाणिज्य की दृष्टि से सर्वाधिक सम्पन्न व सुरक्षित रहा। मैं संस्कार ही नहीं, संस्कृति की ऐसी मिसाल हूं, जिसके सब कायल हैं। अपनी माटी से मुझे भी उतना ही प्रेम है, जितना योगेश्वर श्रीकृष्ण से राधारानी को है। मैं मीरा के जस दीवाना तो प्रहलाद की मानिंद उसका भक्त भी हूं।
-मन दर्पण पुस्तक से साभार-
लोहागढ़ के इतिहास बारे में बहुत ही अच्छी जानकारी दी है। प्रस्तुति भी आकर्षक है।
एक्सीलेंट
लोहागढ़ की विशेषता बताने वाला बहुत सुंदर लेख। मैने ये सुना था की लोहागढ़ की दीवारें मिट्टी की बनी थी जिन्हे तोप का गोला भी पार नहीं कर सकता था ।