
-बृजेश विजयवर्गीय-

नम भूमि यानी जलाशय या ताल तलाईयां यानी वन और पहाड़ सभी एक दूसरे के पूरक है। 2 फरवरी को इस विषय पर ध्यान अकार्षित करने के लिए ही संयुक्त राष्ट्रसंघ के आव्हान पर अपने देश में भी इसे मनाया जाने लगा है। यह सिर्फ पर्यावरण हित चिंतकों का ही विषय नहीं है,कृषि उत्पादन और मौसम जलवायु परिवर्तन को भी प्रभावित करता है। सभी जगह दलदली भूमि मलबे की लैण्ड फिलिंग के काम आ रहीं है या शहरों के विस्तार की भेट चढ़ रही है। अतिक्रमणों की शिकार हो रही है तो स्थानीय स्तर पर जाने अनजाने में में चहुंओर नम भूमि संकटग्रस्त है। नम भूमि के संकटापन्न होने से जलीय जीव जंतुओं की तो हानि होती है साथ ही उर्वरा कृषि भूमि की खत्म होती है जिसका अंततोगत्वा खाद्यान्न संकट से इसे समझा जा सकता है। ऐशिया के सर्वाधिक रामसर स्थल भारत में हैं लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू बड़ा ही भयावह है। जलाशयों को प्रदूषण और अतिक्रमण से बचाने की सभी नीतियां व कानून अनियोजित शहरीकरण के कारण अस्तित्व खो चुके है। वैश्विक सोच के साथ हम बात करें तो स्थानीय स्तर पर जलाशयों का विनाश तेजी से हो रहा है। जलाशयों को परम्परागत भारतीय संस्कृति के उस मानक रूप में चिन्हित किया गया है, जहां से परिवार और समाज को एक दिशा मिलती है। हाड़ौती संभाग और राजस्थान के बारे में बात करें तो समाज व शासन की बढ़ती उदासीनता,राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव और विकास का लालच सरकार पर आश्रित मनोव्यथा चहुंओर परिलक्षित होती है। सरकारों की कल्याणकारी भावना को बेलगाम विकास का लालच लील रहा है। अब ऐसे में जलाशयों की सुध लेने वाले कितने से लोग है। कोटा में पिछले सालों में कालातालाब के गमरमच्छों को भगाकर छोटा से पार्क बना दिया। जो कभी खेती के काम आता था। वोट आधारित राजनीति पक्ष विपक्ष सभी को चुप रहने को बाध्य कर देती है। शहर के निकट छत्रपुरा तालाब कब बस्ती में बदल गया। देखते ही देखते किशोर सागर तालाब पर्यटन केंद्र बन गया लेकिन सीवरेज के नालों को कोई उपचार नहीं हुआ। शहर का गणेश तालाब कोटा को बाढ़ से बचाए रखने का परिसर था आज वहां बनी बस्तियां सवाल खड़े कर रहीं है। दौलतगंज के तालाब को डायवर्जन चैनल की भेंट चढ़ा दिया गया। लखावा का तालाब भी पेटा काश्त और शहरीकरण के विस्तार की भेंट चढ़ने की तैयारी में है।
अभी अभेड़ा और उम्मेदगंज का तालाब है जिसे संवारा जा सकता है। उम्मेदगंज में नगर निगम ट्रेचिंग ग्राउण्ड बना रहा है। बूंदी का शभूपुरा तालाब भी अतिक्रमण की मार झोल रहा है। नवल सागर तो सीवरेज टेंक बन गया। ये कुछ नमूने है हमारी प्रशासनिक सोच के। बारां का डोल तलाब,मनिहारा और झालावाड़ के खंडिया आदि सभी तालाब केचेमेंट सिकुड़ने के कारण संकटग्रस्त है। हाल ही में मंडाना में तरूण भारत संघ व डीसीएम उद्योग समूह के प्रयासों से कुछ तलाबों का पुनरूद्धार हुआ है। कनवास के निकट गोपाल पक्षी विहार नई उम्मीद जगी है यहां पर विधायक भरत सिंह लगातार प्रयास कर रहे है। दीगोद के उदपुरिया तालाब जांधिलों की कॉलोनी के रूप में जाना जाता है ,ठोस कार्ययोजना के अभाव में उदुपरिया भी सिकुड रहा है। वन विभाग के सहयोग से कनवास के निकट नव सृजित गोपाल पक्षी विहार छोटा लेकिन ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। मुकुंदरा टाईगर रिजर्व के अंदर सावनभादों जलाशय जंगल संरक्षित होने के कारण और अधिक सुरक्षित हो गया है। सावनभादों बांघ कृषि की बड़ी उम्मीद है। अधिकांश जलाशयों को मछलीपालन के रूप में माना जाता है जो कि दुखद पहलु है सवाल है कि क्या मछली पालन मुख्य खाद्यान्न हो सकता है जो कि सीधा मांसाहार से जुड़ा है। सरकार को जलाशयों के संदर्भ में अपनी नीति व नीयत स्पष्ट करनी होगी। मांसाहार को बढ़ाने की नीति है तो फिर जलाशय कैसे बचेंगे?
जरूरत है सरकार के स्तर पर जलाशयों को बचाने के कड़े कानूनों की और उनका पालन कराने की इच्छा शक्ति की। वर्ना जयपुर के रामगढ़ बांध का उदाहरण सामने है कि उच्च न्यायालयों के दखल के बाद भी बंधा सूखा का सूखा है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं बाढ़ सुखाड़ विश्व जन आयोग के सदस्य, जल बिरादरी के प्रदेश उपाध्यक्ष हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)