॥ युद्ध सिर्फ़ सरहदों पर नहीं होते ॥

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– राजेश्वर वशिष्ठ-

rajeshwar vashishtha
राजेश्वर वशिष्ठ

ज़मीन को चाहे किसी भी पैमाने से माप लो
उसका बँटवारा कभी नहीं होता सम-तुल्य।
कहीं मौसम रंग बदल लेंगे,
कभी हवाएँ उलझ जाएँगी,
तो कभी बहुत सारी नदियाँ
इकट्ठी हो जाएँगी एक ही भू-भाग पर।
और दूसरे भाग पर बिछ जाएगा दहकता सुनहला रेत।

पहाड़ों को आप उठा भी नहीं सकते,
जंगलों को तो चलना ही नहीं आता।
समुद्र का क्या करें
वह तो गुर्राता ही रहेगा अपने दरवाज़े पर शेर की तरह।

आप इन विषमताओं से खिन्न होकर
सिर्फ पड़ोसी से युद्ध कर सकते हैं!

मान लो, हमसे पृथ्वी कहे –
मैं कुछ देर के लिए
टच स्क्रीन में तब्दील कर देती हूँ अपनी ऊपरी सतह
तुम अपने ज्ञान और विद्वत्ता के साथ
पुनर्संयोजित करलो समस्त भौतिक प्रकृति।
चाहो तो हिमालय को एल्प्स से अदल-बदल लो
सहारा का कुछ टुकड़ा योरुप के आस-पास ले जाओ
ब्रह्मपुत्र को नील से जोड़ लो
और अरब सागर को बदल लो प्रशांत महा सागर से।

परिंदों से पूछोगे?
वे उड़ना जानते हैं कहीं भी चले जाएँगे।
पशुओं से पूछोगे?
वे मरना जानते हैं, कहीं भी पैदा हो जाएंगे।
वनस्पतियों से पूछोगे?
वे जीना जानते हैं, हर जगह मिट्टी में दबे हैं उनके बीज।
स्त्रियों से पूछोगे?
हम जहाँ जाएँगे, उन्हें वहाँ आना ही पड़ेगा।

फिर किसी रविवार के दिन सुबह
पुरुष बैठेंगे पृथ्वी को पुनर्गठित करने के लिए।
उस समय घर के चूल्हे पर रखी हंडिया में
खदक रही होगी मसूर की दाल।
आँगन में ढ़ेर लगे होंगे मैले कपड़ों के, धुलने के लिए।
कई स्त्रियाँ सीलन भरे बिस्तरों में
टाँगे मोड़ कर छटपटा रहीं होंगी महावारी के दर्द से
बच्चे रो रहे होंगे स्तनपान की प्रतीक्षा में।

पुरुष नदियों, जंगलों और समुद्रों की चिंता छोड़ कर कहेंगे –
शराब, हवाई जहाजों, कारों और इलैक्ट्रॉनिक गैजेट्स के कारखाने
एक दिन के लिए भी बंद न हों, चाहे जहाँ भी रहें ।
नौकरों और महरियों की संख्या किंचित भी नहीं घटे।
हम धरती की भौतिकता बदल रहे हैं
लोगों के नसीब नहीं।

उन्हें खयाल भी नहीं आएगा कि असंख्य पुस्तकालयों में भरीं
ढ़ेर-सारी किताबों का क्या होगा!
बूढ़ों के बहुत आग्रह पर
वे शायद बचाने के लिए दौड़ें अपने धर्म-ग्रंथ
पर वे भूल कर भी नहीं बचाएँगे कानून की किताबें और संविधान।

वे सबसे पहले अदलना-बदलना चाहेंगे
एक दूसरे के क्षेत्र की स्त्रियाँ और शराब।
वे भूल जाएँगे स्त्रियाँ उनके बच्चों की माँएँ भी हैं;
पुरुष के लिए स्त्रियाँ उन स्लेटों की तरह ही हैं
जिन पर वे खड़िया से लिखते हैं अपने बच्चों के नाम।

पर स्त्रियाँ कहीं नहीं जाएँगी;
उनके सेंडिल नहीं हैं इतने आरामदेह
कि वे उन्हें बिना हाथ में उठाए
चल सकें मीलों-मील रास्ता।
उनके बच्चे रात में भी सोते नहीं उनकी गंध के बिना।

वे उन पुरुषों के लिए भोजन बनाएँगी
जो इस निर्रथक बहस को खुद ही छोड़ आएँगे
एक दूसरे को गालियाँ देते हुए।
और कुछ देर बाद हथियारों के जखीरे पर बैठ कर
तैयार कर रहे होंगे अगले युद्ध की रणनीति।
वे जानती हैं इस फेंटेसी मे कोई दम नहीं है
पर युद्ध उनके खून में घुल चुका है।

सुनेत्रा,
युद्ध सिर्फ सरहदों पर नहीं होते
वे हमारे भीतर होते हैं!

— राजेश्वर वशिष्ठ

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