
-द ओपिनियन डेस्क-
कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के बीच में पार्टी राजस्थान में सियासी भंवर में फंस गई है। अब लगता है अध्यक्ष से ज्यादा राजस्थान में कौन बनेगा मुख्यमंत्री सवाल अहम हो गया है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए अशोक गहलोत को चुनाव लड़ने की हरी झंडी देने से पहले कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने अपना होम वर्क पूरा नहीं किया। वरना यह सियासी भंवर ही उत्पन्न नहीं होता। इसी भंवर की कोई तस्वीर ऐसी नहीं है जिसका अनुभवी राजनेता अनुमान नहीं लगा सकता था? अशोक गहलोत ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए अपनी उम्मीदवारी की घोषणा से पहले केरल जाकर भारत यात्रा के बीच राहुल गांधी से मुलाकात की थी।

इससे पहले सचिन पायलट भी भारत जोड़ो यात्रा के सिलसिले में केरल गए थे। इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उनके बीच कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव को लेकर कोई मंत्रणा नहीं हुई थी। फिर गहलोत से मुलाकात में तो सारी तस्वीर साफ होनी चाहिए थी। गहलोत के बाद कौन यह सवाल गहलोत की उम्मीदवारी से पहले हल किया जाना चाहिए था। जब गहलोत के इस कार्यकाल की शुरुआत ही गहलोत व पायलट के बीच राजनीतिक टकराव से हुई थी तो फिर सहज सत्ता हस्तातंरण के लिए पहले ही कोई फार्मूला तय कर लिया जाता तो यह नौबत नहीं आती। जहां इतने सारे सवाल उठ खड़े हुए हैं और राजस्थान में पार्टी के भीतर खाई और गहरी हो गई है और इसका असर राष्टीय स्तर पर भी पड़े बगैर नहीं रहेगा । गहलोत कांग्रेस के अध्यक्ष बने या नहीं वे मुख्यमंत्री रहे या नहीं लेकिन उनकी नाराजगी पार्टी को महंगी पड़ सकती है। गहलोत के उत्तराधिकारी के चयन को लेकर पार्टी की अंतरकलह खुलकर सामने आ गई। अब आप किसी को भी मुख्यमंत्री बना दें क्या इस नुकसान की भरपाई हो सकती है। जब कैबिनेट का कोई वरिष्ठ सदस्य पार्टी के केंद्रीय पर्यवेक्षक का नाम लेकर यह कहे कि वह ऐसे व्यक्ति को सीएम बनाने का मिशन लेकर आए थे जिसने पार्टी को संकट में डाला था। उन्होंने विधायकों के हवाले से यह बात कही। बात साफ है कि पार्टी ने इस सवाल पर अपना होमवर्क पूरा नहीं किया कि किसको मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपनी है। यदि कुर्सी पायलट को सौंपी जानी थी तो भी संभावित नाराजगी के सामने का पहले से इंतजाम होना चाहिए था। कांग्रेस ने पंजाब में इसी तरह की गलती की थी। चन्नी और सिद्धू की कलह कितनी महंगी पड़ी, अब यह किससे छिपा नहीं है। अब इस पद पर शेष कार्यकाल के लिए गहलोत मुख्यमंत्री बने रहें या पायलट को बागडोर सौंप दी जाए या किसी अन्य नेता को यह पद सौंप दिया जाए तो क्या फिर कांग्रेस की नई सरकार एक टीम के रूप में कार्य कर सकेगी। पार्टी में अनुशासन बहुत अहम है लेकिन यदि पार्टी के 90 प्रतिशत विधायक किसी बात को लेकर एक पाले में ख़ड़े होते हैं तो क्या फिर उनका पक्ष अनदेखा किया जा सकता है? निसंदेह गहलोत समर्थक विधायकों का रुख आलाकमान की नजर में अनुशासन हीनता हो सकता है लेकिन इससे संदेश यह भी जाता है कि बहुमत की बात नहीं सुनी जाती वरना ऐसा नौबत ही क्यों आती!
अब सवाल यह भी उठता है कि आलाकमान अब क्या करेगा ? क्या वह गहलोत व उनके समर्थक विधायकों के खिलाफ कार्रवाई करेगा ? पार्टी क्या पायलट को मुख्यमंत्री बनाएगी? या कोई और रास्ता अपनाएगी। यदि कांग्रेस अब पायलट की ताजपोशी करती है तो पायलट के सामने भी पार्टी में समरसता और एकता कायम करने की चुनौती होगी। अब देखना यह है कि दिल्ली से आए पर्यवेक्षक कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को क्या रिपोर्ट सौंपते हैं और उसके बाद कांग्रेस उस पर क्या कार्रवाई करती है। कांग्रेस यदि गहलोत को अध्यक्ष पद की दौड़ से हटाती है तो फिर वहां भी उसके सामने गहलोत जैसा कद्दावर नेता विकल्प के रूप में सामने लाना आसान नहीं है।