
-टीएमसी, कांग्रेस, टिपरामोथा और वामपंथी नहीं छोड़ सके प्रभाव
नई दिल्ली। त्रिपुरा तथा नगालैंड में भाजपा गठबंधन की सरकार बनना तय है। भाजपा ने दोनों ही राज्यों में बहुमत हासिल कर लिया है। मेघालय में त्रिशंकु विधानसभा है क्योंकि यहां पर किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला है।
भाजपा और उसके सहयोगी दलों का नार्थ ईस्ट के इन तीनों राज्यों में शानदार प्रदर्शन के पीछे कई कारण रहे। इसमें सबसे प्रमुख भाजपा की चुनाव जीतने की अदम्य इच्छा शक्ति और उसी के अनुसार तैयारी है। चाहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हों या अमित शाह उन्होंने कोई कोर कसर नहीं छोडी लेकिन सबसे अहम भूमिका असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा की रही।
अमित शाह ने त्रिपुरा में मतदाताओं को कांग्रेस और वामपंथी दलों के अलावा टिपरा मोथा के प्रति चेताया था। उन्होंने मतदाताओं को जता दिया था कि यदि उसने भाजपा या उसके सहयोगी दलों के अलावा अन्य को चुना तो राज्य में एक बार फिर आतंक का खतरा है। उन्होंने इन दलों को निशाने पर लेते हुए कहा था कि ये सभी दल सत्ता में आने के लिए ही एकजुट हुए हैं जबकि वैचारिक तौर पर इनका कोई साथ नहीं है और इनका मतदाता हित से कोई मतलब नहीं है।

त्रिपुरा के लगभग 70% मतदाता बंगाली हैं। भाजपा ने आदिवासी क्षेत्रों में टिपरा मोथा के बढते प्रभाव के प्रति बंगाली मतदाताओं पर खास ध्यान दिया। उसने बंगाली मतदाताओं को यह संदेश देने में सफलता हासिल की कि टिपरा मोथा का उदय उनके हित में नहीं है। इससे बंगाली वोट उसके पक्ष में हुआ। असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व सरमा ने ग्रेटर टिपरालैंड की मांग को सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने बंगालियों के इस भय को दूर कर दिया कि त्रिपुरा का कोई विभाजन नहीं होगा। असम सीएम ने एक रैली में दो टूक कहा कि त्रिपुरा का कोई विभाजन नहीं होगा। उनकी रैली में यह घोषणा बंगाली मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में करने में मददगार साबित हुई। भाजपा को गरीबों को दी जाने वाली सुविधाओं की घोषणा का भी लाभ मिला। भाजपा 2018 में त्रिपुरा में सत्ता में आई थी। उसके शासनकाल में जहां प्रधानमंत्री आवास योजना 1.6 लाख से अधिक गरीब परिवारों को आवास मिले। इसके अलावा मासिक सामाजिक भत्ते को 700 रुपये से 1,000 रुपये से बढ़ा दिया था। पिछले साल सितंबर में इसे बढ़ाकर 2,000 रुपये तक कर दिया था। राज्य सरकार ने पिछले साल दिसंबर में कर्मचारियों के मंहगाई भत्ते में 12 प्रतिशत की बढोतरी कर दी थी। वामपंथ के 25 साल के शासन के मुकाबले भाजपा ने कानून एवं व्यवस्था बेहतर बनाए रखी।
कैडर-आधारित सीपीएम के श्रमिकों का एक वर्ग कांग्रेस के साथ गठबंधन के पार्टी के निर्णय से खुश नहीं था। उसका मानना था कि पार्टी ने सत्ता के लिए दुश्मन से हाथ मिला लिया है। भाजपा 2018 में कांग्रेस के वोट हासिल करने से ही सत्ता पर कब्जा जमाने में सफल रही थी। कांग्रेस के वोट भाजपा के पक्ष में स्थानांतरित हो गए। जबकि इस बार के चुनाव में कांग्रेस के वोट कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित थे।
मेघालय विधानसभा चुनाव के परिणामों ने संकेत दिया कि लोगों ने तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को स्वीकार नहीं किया। टीएमसी ने चुनाव प्रचार तो जोरदार किया लेकिन नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) को चुनौती देने में विफल रही। टीएमसी ने नवंबर 2021 में कांग्रेस के 12 विधायकों के पाला बदलने के साथ मेघालय की राजनीति में दखल दिया था।
भाजपा ने अपने सहयोगी मुख्यमंत्री एनपीपी के कॉनराड के संगमा के माध्यम से लोगों को टीएमसी से सावधान रहने और यह संदेश देने में सफलता हासिल की कि टीएमसी “बाहरी लोगों” की एक पार्टी है जो “अवैध आप्रवासियों” की पक्षधर है। उसका स्पष्ट संकेत था कि टीएमसी का एनआरसी खिलाफ है।
टीएमसी ने गारो हिल्स में कुछ सफलता हासिल की। इस क्षेत्र में राज्य की 60 सीटों में से 24 हैं। यहीं से उसके अधिकांश विधायक भी हैं। लेकिन टीएमसी खासी और जयंतिया हिल्स में बुरी तरह विफल रही। खासी और जयंतिया हिल्स में 36 सीटें कई दलों में बंटने की परंपरा रही है। मेघालय को 1972 में राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ था। वहां गठबंधन सरकारों का इतिहास रहा है। मेघालय में 1972 के पहले चुनाव को छोड़कर, कभी भी एक पार्टी सरकार नहीं रही थी।
मेघालय में एनपीपी ने छह दलों की सरकार की अगुवाई की थी। यहां टीएमसी ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया लेकिन सांगमा ने इसका जवाब नहीं दिया क्योंकि वह जानते थे कि इसका जनता पर अच्छा प्रभाव नहीं पडेगा क्योंकि उन्हें पता था कि जिन पर टीएमसी आरोप लगा रही है वे भी उनकी सरकार का हिस्सा हैं।
नगालैंड में भाजपा की चुनौती सहयोगी राष्ट्रवादी डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) को संभालने के बारे में अधिक थी क्योंकि यहां इस गठबंधन को कोई चुनौती ही नहीं थी। यहां तो पहले ही से ससभी को पता था कि इस गठबंधन की सरकार बनेगी।
नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) पिछले साल दो फाड हो गया था। एनपीएफ 2003-18 तक राज्य में सत्ता पर रहा। लेकिन पिछले साल इसके 26 में से 21 विधायक पर शासन किया था, पिछले साल विघटित हो गया था जब इसके 26 में से 21 विधायक एनडीपीपी में चले गए। कांग्रेस और एनपीएफ ने राज्य विधानसभा की 60 सीटों में से क्रमशः केवल 23 और 22 सीटों पर चुनाव लड़ने के फैसले से ही एक तरह से चुनावों से पहले ही हार मान ली।