
-बृजेश विजयवर्गीय-

बिहार के बगहा में बाघ को आदमखोर घोषित कर मार डाला। क्या इसे वन्य जीव प्रबंधन की सफलता कहा जाए? सवाल यह है कि जब बाघ की हत्या की जा रही थी तब कहां था राष्ट्रीय बाघ प्राधिकरण (एनटीसीए)? टाइगर को बसाने के लिए छोटी-छोटी बात पर टांग अडाने वाले एनटीसीए ने बगहा में बाघ की हत्या को रोकने के बारे में कोई प्रयास नहीं किए। बाघ यदि आदमखोर था तो क्या उसे बिना मारे कोई अन्य विकल्प नहीं था। लेकिन क्या करें इन बेजुबान वन्य जीवों के पास वोट की ताकत नहीं है। इसलिए उसे वध कर दिया गया। जबकि उसे ट्रेंकुलाइज कर संरक्षित जू के केज़ में रखा जा सकता था। उसे मरवाने से माननीयों की लोकप्रियता बढ़ जाती है।
इस मामले में कथित वन्यजीव प्रेमियों, विशेषज्ञों का ज्ञान कोरा कागज ही साबित हुआ। बाघ संरक्षण के सारे उपाय भी बाघ की हत्या से ढेर हो गए।
जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क शिकारी के नाम पर है। जिम कॉर्बेट कथित आदमखोर बाघों को मारकर बाघ संरक्षण के हीरो बन गए थे। देश में बाघ संरक्षण को लेकर जागरूकता चौराहे पर है। जब जिन पर बाघों को बचाने का जिम्मा है, वही एनटीसीए राजनीतिक दबाव में बाघ को मारने का आदेश दे तो सवाल तो उठेंगे ही।
क्या बाघ की हत्या ही विकल्प रह गया था। बूंदी के रामगढ़ विषधारी के इंद्रगढ माता जी के पास भी पैंथर को आदमखोर घोषित कर तत्कालीन जिलाधिकारी ने वन विभाग से हत्या करवा दी थी। तब भी सरकार की भद्द पिटी थी।
सवाल यह है कि बाघ को नर भक्षी बनाया किसने। जंगल काटे किसने। आधुनिक युग की दुहाइयां देने वाले वन विशेषज्ञों ने उसे आदमखोर घोषित किया। जबकि समस्त उच्च संसाधन, तकनीक सरकार के पास है। चिंता इस पर है जिन पर संरक्षण का जिम्मा है वही आंखे मूंदे हुए हैं।
(जल बिरादरी की बाघ -चीता मित्र व चम्बल संसद के संयोजक)